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________________ जिनवाणी- विशेषाङ्क है । ज्ञान रूप समुद्र में अनन्त द्रव्य अपने गुण और पर्यायों सहित सदैव प्रतिबिम्बित होते हैं, पर वह उन द्रव्यों रूप नहीं होता और न अपने ज्ञायक - स्वभाव को छोड़ता है । वह अत्यन्त निर्मल प्रत्यक्ष है, अपने पूर्ण रस में मौज करता है तथा उसमें मति, श्रुत, अवधि मनः पर्यय और केवलज्ञान ये पाँच प्रकार की लहरें उठती हैं, उसकी महिमा अपरम्पार है, वह निजाश्रित है, एक है, तो भी ज्ञेयों को जानने की अपेक्षा अनेकता लिए हुए है। ११ २१० भेदविज्ञानी ज्ञाता राजा जैसा रूप बनाए हुए है। वह अपने आत्मरूप स्वदेश की रक्षा के लिये परिणामों की सम्हाल रखता है और आत्मसत्ता भूमिरूप स्थान को पहिचानता है । वह प्रशम, संवेग, अनुकम्पा आदि की सेना सम्हालने में प्रवीण होता है । साम, दाम, दण्ड, भेद आदि कलाओं में वह कुशल राजा के समान है। व्रत, समिति, गुप्ति, परीषहजय, धर्म, अनुप्रेक्षा आदि अनेक रंग धारण करता है । कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने में वह बड़ा बहादुर होता है । माया रूपी जितना लोहा है, उस सबको चूर-चूर करने को रेती के समान है, कर्म के फंदे रूप कांस को उखाड़ने के लिए किसान के समान है, कर्मबन्ध के दुःखों से बचाने वाला है, सुमति राधिका से । प्रीति जोड़ता है, कुमति रूप दासी से सम्बन्ध तोड़ता है, आत्मपदार्थ रूप चांदी को ग्रहण करने और पर पदार्थ रूप धूल को छोड़ने में रजतसोधा (सुनार) के समान है । पदार्थ को जैसा जानता है, वैसा ही मानता है, भाव यह है कि वह हेय को हेय जानता और मानता है, उपादेय को उपादेय जानता और मानता है 1 २ ज्ञानी जीव भेदविज्ञान की करौंत से आत्मपरिणति और कर्म परिणति को पृथक् करके उन्हें जुदी-जुदी जानता है और अनुभव का अभ्यास तथा रत्नत्रय ग्रहण करके ज्ञणी कर्म व राग-द्वेष आदि विभाव का खजाना खालीकर देता है । इस रीति से वह मोक्ष के सन्मुख दौड़ता है। जब उसके केवलज्ञान प्रकट होता है तब संसार में भटकन मिट जाती है तथा करने को कुछ बाकी नहीं रह जाता है अर्थात् कृतकृत्य हो जाता है 1 इस प्रकार भेदज्ञान की बहुत बड़ी महिमा है । भेदविज्ञानी ही सम्यक्त्वी है, वही मोक्षमार्गी है, वही निर्वाण प्राप्ति के सन्मुख होता है । .१३ सन्दर्भ १. समयसार नाटक, जीवद्वार, १५ २ . वही, १२ ३. समयसार नाटक, ४. वही, ८, ५. वही, ९ ६. वही, ४ , जीवद्वार-७ ७. समयसार नाटक- जीवद्वार, ३० ८. वही,३१,९. समयसार नाटक, कर्ता-कर्म- क्रियाद्वार, १५ १०. वही,२३,११. समयसार नाटक - निर्जरा द्वार - २० १२.वही-मोक्षद्वार- ६,१३. वही - मोक्षद्वार - २ Jain Education International - जैन मन्दिर के पास, बिजनौर (उ.प्र.) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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