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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन
जिस प्रकार सुवर्ण कुधातु के संयोग से अग्नि के ताप में अनेक रूप होता है, फिर भी उसका नाम सोना ही रहता है तथा सर्राफ कसौटी पर कसकर उसकी रेखा देखता है और उसकी चमक के अनुसार दाम देता-लेता है, उसी प्रकार अरूपी महादीप्तवान् जीव अनादिकाल से पुद्गल के समागम में नवतत्त्वरूप दिखता है, परन्तु अनुमान-प्रमाण से सब दशाओं में ज्ञानस्वरूप एक आत्मा के सिवाय और दूसरा कुछ नहीं है। मैं तीनों काल शुद्धचैतन्यमयी मूर्ति हूं, किन्तु पर-परिणति के संयोग के कारण जड़ता प्रकट हो रही है । मोहनीय कर्म रूपी 'पर' का हेतु पाकर चेतन 'पर' के प्रति रच-पच रहा है, जिस प्रकार धतूरे के रस का पान कर मनुष्य अनेक प्रकार से नाचता-फिरता है।
पुद्गल और चैतन्य का भिन्न स्वभाव है। चेतना से भिन्न शरीर का वर्णन करना वैसा ही है, जैसे किसी नगर के स्वरूप का राजा से रहित वर्णन किया जाय । यद्यपि शरीर और चेतन व्यवहार से एक लगते हैं, किन्तु नैश्चयिक दृष्टि से वे भिन्न हैं। तन की स्तुति करना व्यवहार से जीव की स्तुति करना है। निश्चय दृष्टि से इस प्रकार की स्तुति मिथ्या है। जिस प्रकार चिरकाल से कोई निधि वसुधा में छिपी पड़ी हो, कोई उसे उखाड़कर पृथ्वी के ऊपर रख दे तो सबको दिखाई देती है, उसी प्रकार यह आत्मा की अनुभूति अनादिकाल से जड़ पदार्थों में उलझी पड़ी है। इसका वर्णन आचार्यों ने नय, युक्ति और आगम से किया है। उन्होंने इसके लक्षण के आधार पर इसे विचक्षण जाना है। ___जैसे हंस को नीर-क्षीर विवेक होता है, उसी प्रकार सम्यक्त्वी की सुदृष्टि में जीव और कर्म न्यारे-न्यारे हैं। जब शुद्ध चेतना के अनुभव का अभ्यास होता है, तब स्वयं की अचलित स्थिति का बोध होता है, दूसरा कोई साथी नहीं होता है। पूर्वबद्ध कर्म उदय में आए हुए दिखते हैं, पर अहंबुद्धि के अभाव में वह उनका कर्ता नहीं होता है, मात्र दर्शक रहता है। ज्ञानी और मूढ़ बाहर कर्म करते हुए एक से दिखाई देते हैं, किन्तु परिणाम में भेद होने के कारण दोनों को अलग-अलग फल मिलता है। ज्ञानवान् करनी करता है, किन्तु उदासीन होकर करता है, वह ममत्वभाव धारण नहीं करता है, अतः उसके कार्य निर्जरा के हेतु हैं। उसी कार्य को मूढ़ मगन होकर करता है। ममता से अन्ध होने के कारण उसके कार्य बन्ध के फल को देते हैं।१० सम्यक्त्वी सोचता है कि पूर्व अवस्था में जो कर्मबन्ध किया है, वही उदय में आकर नाना भाँति रस देता है। कोई शुभफल देता है, कोई अशुभफल देता है । शुभ कर्म के उदय से साता और अशुभ कर्म के उदय से असाता होती है। सम्यक्त्वी शुभ कर्म के प्रति तीव्र राग नहीं करता, अशुभ कर्म के प्रति तीव्र द्वेष नहीं करता है, अपितु समभाव धारण करता है। वह यथायोग्य क्रिया करता है, किन्तु फल की इच्छा नहीं करता है। इस प्रकार वह जीवन्मुक्त जैसा आचरण करता है। वह मिथ्यात्व से दूर होकर, शुद्धता से युक्त होता है। उसके प्रकाश में राग, द्वेष और मोह दिखाई नहीं देता है। आस्रव घटता है, बन्ध का कष्ट कम होता है ।
सम्यक्त्वी के सदैव ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती है। उसके प्रभाव से वह अपने स्वरूप का लक्षण देख लेता है और जीव तथा अजीव की दशा का भेद करता
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