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________________ २०४ - जिनवाणी-विशेषाङ्क विषय के लिए अप्रयत्लदशा रहती है। यदि जीव को परितृप्तता न रहा करती हो तो उसे अखंड आत्म-बोध नहीं है, ऐसा समझे। देह में रोग होने पर जिसमें आकुलता-व्याकुलता दिखाई दे तो उसे मिथ्या दृष्टि समझें । (उपदेश छाया) सम्यक्त्वी वह है जो कंचन को कीचड़, राजगद्दी को नीचपद, स्नेह को मृत्यु, बड़प्पन को लीपण, योग को जहर, सिद्धि आदि ऐश्वर्य को असाता, जगत् में पूज्यता को अनर्थ, औदारिक काया को राख, भोगविलास को जाल, गृहवास को भाला, कुटुम्ब कार्य को काल (मृत्यु), लोक प्रशंसा को लार, कीर्ति को नाक का मैल, पुण्य के उदय को विष्ठा-समान समझता है। ऐसी रीति वाले को बनारसीदास ने वंदन किया है, यथा कीचसौ कनक जाकै नीच सौ नरेसपद मीचसी मिलाई गरुवाई जाके गारसी। जहरसी जोग जाति, कहरसी करामाति, हहरसी हौस पुद्गल छवि छारसी। जाल सौ जगबिलास, भाल सौ भुवनवास काल सौं कुटुम्बकाज, लोकलाज लारसी। सीठ सौ सुजस जाने, बीठ सौ बखत माने, ऐसी जाकी रीति, ताही बंदत बनारसी॥ यदि अन्तर में यह प्रश्न गूंजे कि मुझे सम्यक्त्व है या नहीं तो उक्त वर्णन से जांच-परीक्षण कर ले, उत्तर मिल जाएगा। सम्यक्त्व केवलीगम्य है या जीव की समझ में आता है, इसके उत्तर में श्रीमद्जी ने बताया कि समकित होने पर भ्रान्ति दूर होती है तथा उसका फल स्वयं जाना जा सकता है। निश्चय सम्यक्त्व केवली गम्य है। सम्यक्त्व के तीन प्रकार (१.) स्वच्छंद मत आग्रह तजी वर्ते सद्गुरु लक्षा ___ समकित तेने भाखियुं, कारणगणी प्रत्यक्ष ॥ आत्मसिद्धि १७ स्वच्छंद तथा स्वयं की मति-कल्पना से बंधा मत और उसका दृढाग्रह त्यागकर, सद्गुरु की आज्ञा लक्ष्य में रखे तो उसे समकित का प्रत्यक्ष कारण मानकर उसे समकित कहा जाता है। यह प्रथम समकित है। इसमें सत्पुरुष की खोज, उनके वचन की सच्ची प्रतीति, आज्ञाराधन में अपूर्व रुचि उत्पन्न होती है। रागद्वेष के विजेता जिनदेव के वचनों में अपूर्व श्रद्धा होती है। उनकी अपूर्व वाणी और तदनुसार प्रवर्तन से सम्यक्त्व तभी होता है जब स्वयं के मत-उसके आग्रह से मुक्त हों। 'मै जानता हूं आदि दोषों तथा मताग्रह (अर्थात् कुलधर्म, लौकिकरूढ़ि और लोकसंज्ञा का अनुसरण करने वाले मताग्रही को इन दोषों) का त्याग करके ज्ञानी पुरुष की आज्ञा, अत्यन्त रुचिपूर्वक आराधनी चाहिए। उनके आशय को अन्तःकरण से समझकर उसी अनुसार चले तो उसके प्रत्यक्ष कारण रूप यह पहले प्रकार की समकित होती है। छोडी मत दर्शन तजो, आग्रह तेम विकल्प। कह्यो मार्ग आ साधशे, जन्म तेहना अल्प ।। आत्मसिद्धि, १०५ यह मेरा मत है, इसलिए मुझे यही मानना चाहिए, अथवा यह मेरा दर्शन है Jain Education International ForPersonal &Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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