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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय- विवेचन वाली आस्था ऐसे पांच कारण सम्यक्त्व प्राप्ति कराने वाले हैं। " पंचपरमेष्ठी के स्वरूप को जानकर उनके प्रति आस्था तत्त्वों पदार्थों के सच्चे स्वरूप को जानकर उनपर आस्था और सर्वोपरि, आत्मा की आस्था अर्थात् आत्मा का अस्तित्व है, नित्यत्व है, अज्ञान से कर्त्ता - भोक्तापन है, ज्ञान से पर योग का कर्त्ताभोक्तापन नहीं है, ज्ञानादि उपाय है, इतनी आस्था होना ही सम्यक् दर्शन है। ३४" 1 २०३ आत्मवाद पर गणधर भगवंतों ने एक पूर्व की रचना की । वह लुप्त हो गया । श्रीमद्जी ने छः पदों के एक पत्र में और आगमों के सार रूप 'आत्मसिद्धि' में आत्मा के छः स्थानकों का विशद, गंभीर और आत्मशुद्धि का मार्ग निरूपित किया है । जो शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त हुए हैं ऐसे ज्ञानी पुरुषों ने छह पदों को सम्यक् दर्शन के सर्वोत्कृष्ट स्थानक कहा है- आत्मा है, आत्मा नित्य है, आत्मा कर्ता है, आत्मा भोक्ता है, मोक्ष है और मोक्ष का उपाय है। इन छः पदों का विवेक जीव को स्व स्वरूप समझने के लिए कहा है। अनादि स्वप्नदशा के कारण उत्पन्न हुए जीव के अहंभाव, ममत्वभाव के निवृत्त होने के लिए ज्ञानी पुरुषों ने इन छः पदों की देशना प्रकाशित की है । उस स्वप्न दशा से रहित मात्र अपना स्वरूप है, ऐसा यदि जीव परिणाम करे तो वह सहज में जागृत होकर सम्यक् दर्शन को प्राप्त करता है, सम्यक् दर्शन को प्राप्त होकर स्व-स्वभावरूप मोक्ष को प्राप्त होता है | सम्यग्दर्शन का फल सम्यक्त्वी या समदर्शी का व्यवहार कैसा होता है इसका सूक्ष्म विवेचन करते हुए श्रीमद्जी लिखते हैं " समदर्शिता अर्थात् पदार्थ में इष्टानिष्ट बुद्धिरहितता, इच्छारहितता, ममत्वरहितता .... यह मुझे प्रिय है, यह अच्छा लगता है, यह मुझे अप्रिय है, यह अच्छा नहीं लगता, ऐसा भाव समदर्शी में नहीं होता। समदर्शी बाह्य पदार्थ को, उसके पर्याय को, वह पदार्थ तथा पर्याय जिस भाव से रहते हैं उन्हें उसी भाव से देखता है, परन्तु उस पदार्थ अथवा उसके पर्याय में ममत्व या इष्टानिष्ट बुद्धि नहीं करता । विषमदृष्टि आत्मा को पदार्थ में तादात्म्यवृत्ति होती है, समदृष्टि आत्मा को नहीं होती । प्राप्त स्थिति में संयोग में अच्छा-बुरा, अनुकूल-प्रतिकूल, इष्टानिष्ट बुद्धि, आकुलता-व्याकुलता न करते हुए उनमें समवृत्ति से अर्थात् अपने स्वभाव से रागद्वेषरहित-भाव से रहना, यह ! समदर्शिता है । साता - असाता जीवन-मरण, सुगंध - दुर्गध, सुस्वर- दुःस्वर, सुरूप- कुरूप शीत - उष्ण आदि में हर्ष - शोक, रति- अरति, इष्टानिष्टभाव, आर्त्तध्यान न रहे यह समदर्शिता है। हिंसा, असत्य, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह का परिहार समदर्शी मे अवश्य होता है", ३५ जैसी दृष्टि इस आत्मा के प्रति है वैसी दृष्टि जगत् के सभी आत्माओं के प्रति जैसा स्नेह इस आत्मा के प्रति है वैसा सभी आत्माओं के प्रति और जैसी इस आत्मा की सहजानन्द स्थिति चाहते हैं वैसी जो जगत् के सभी आत्माओं की चाहते हैं वे समदृष्टि होते हैं । .३६ जिसे बोध बीज की उत्पत्ति होती है, उसे स्वरूप सुख से परितृप्तता रहती है और For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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