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जिनवाणी-विशेषाङ्क जिनपद निज पद एकता, भेदभाव नहिं काई। लक्ष्य क्याने तहलो, कम शास सुखदाई ॥३॥ जिन प्रवचमा दुर्गम्यता, थाके अति मतिमान।
अवालंबन श्री सदगुरु सुगम अने सुख्खाज ।।४।। मार्गप्राप्ति हेतु पात्रता-दिग्दर्शन करते हैं
विषय विकार सहित ये रहा मतिना योग। परिवानी विषमता, तेने योग अयोग ॥८॥ मंद विषय ने सरलता सह आज्ञा सुविचार । करुणा कोमलतादि गुण प्रथम भूमिका पार ॥९॥ रोक्या शब्दादिव विषय संयम साधन राग। जगत इट नहीं आत्पथी, मध्य पात्र महाभाग्य ॥१० नहीं समा जीव्यातणी परण योग नहीं शोष।
पहाणा मार्गना, परपयोग जितलोष ॥११॥ रत्नत्रय धर्म को तीन वाक्यों में समेटते हए कितने उत्कृष्ट वचन कहे हैं
"सब जीवों के प्रति. सब भावों के प्रति अखंड एकरस वीतराग दशा रखना ही समस्त ज्ञान का फल है। आत्मा शुद्ध चैतन्य, जन्म-मरण रहित और निसंगस्वरूप है। इसी में समस्त ज्ञान समा जाता है। उसकी प्रतीति में समस्त सम्यक् दर्शन आ जाता है।आत्मा का निस्संग-स्वभाव दशा में रहना, सम्यक चारित्र, उत्कृष्ट संयम और वीतराग दशा है जिसकी पूर्णता को पहुंचने पर समस्त दुःखों का नाश हो जाता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं, तनिक भी संदेह नहीं।" __ऐसी सर्वोत्कृष्ट दशा की प्राप्ति हेतु · दर्शनमोहनीय के क्षयादि की प्रथम
आवश्यकता है। वह कैसे हो? इसे समझना होगा। __जब तक स्वप दशा रहती है, अनन्तानुबंधी का उदय रहता है तब तक सत्पुरुष की बात सुनना भी नहीं आता। इसीलिए आत्मसिद्धि में आत्मार्थी के लक्षणों का निरूपण करते हुए कहा गया है
कपायनी उपशान्तता मात्र मोक्ष अपिल्लाव। पवे खेद प्राणीदन, त्यो आत्मा निवास ॥३८॥ दशान एवी त्यां सुदीजीव लहे नहि जोग। मोक्ष मार्ग पाये नहीं, मिटे २ अन्तर रोग ॥३९॥
आवे ज्यां एवी दशा, सदगुरु बोध सुहाय। ते बोधेसविचारणा त्या प्रकटे सुखदाय ४० ॥ ज्या प्रगटे सुविचारणा त्यां प्रगटे विज्ञान ।
ज्येशने शय मोह बई, पये पद निर्वाण १ ॥ क्रोधादि कषाय उपशान्त हों (सम), इच्छा-आकांक्षा-वासना-तृष्णादि का अभाव होकर मात्र मोक्ष की ही अभिलाषा हो (संवेग), अनादिकाल से भव-भ्रमण करते-करते. जन्मजरा मृत्यु के चक्र में फंसकर अनन्त दुःख पाया इसलिए अब संसार से विमुख होने, भवांत करने की दृढ़ इच्छाशक्ति हो (निवेद), प्राणिमात्र के प्रति, दसों प्राणों । युक्त इस संसारी आत्मा को दुःखों से दुःखी देखकर, सर्व के प्रति दया-करुणा (अनुकम्पा) और अन्तिम परन्तु सबसे प्रमुख आत्मार्थ साधने का प्रबल परुषार्थ जगान
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