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________________ ............... ............... . १९४ जिनवाणी-विशेषाङ्क उसे निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। (४) जो जीव समस्त भावों में अमूढ एवं यथार्थदृष्टि वाला होता है, उसे वस्तुतः अमूदृष्टि सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। (५) जो जीव शुद्धात्मभावनारूप सिद्धभक्ति से युक्त है और समस्त रागादि विभावधर्मों का उपगूहन (नाश) करने वाला है उसे उपग्रहनकारी सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। ___(६) जो जीव उन्मार्ग में जाते हुए, स्वयं अपनी आत्मा को शिवमार्ग में स्थापित करता है उसे स्थितिकरणयुक्त सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। (७) जो जीव त्रिविध मोक्षमार्ग (रत्नत्रय) अथवा त्रिविध साधु (आचार्य, उपाध्याय, साधु) के प्रति वात्सल्य करता है उसे वात्सल्यभावयुक्त सम्यग्दष्टि जानना चाहिये। -१०६, अशोक नगर, उदयपुर निर्भयता सम्यग्दृष्टि में सात प्रकार के भय नहीं होते -(१) ऐहिक भय (२) पारलौकिक भय (३) वेदनाभय (४) मरणभय (५) अत्राणभय (६) अश्लोकभय और (७) आकस्मिक भय प्रश्न-परलोक का भय तो धर्मात्मा होने का चिह्न माना जाता है। जब कोई पाप करता है तो उसे पाप से निवृत करने के लिये कहा जाता है कि भाई! कुछ परलोक से डरो । फिर सम्यग्दृष्टि, परलोक का भय क्यों नहीं रखता? उत्तर-'डरना' के प्रयोग अनेक तरह के हैं। कभी-कभी ऐसा बोला जाता है कि 'पाप से डरो!' तब पाप से डरने का अर्थ है पाप के फल से डरना 'परलोक से डरो' का अर्थ है कि पाप करने पर भी अगर तुम्हें इस जन्म में उसका फल नहीं मिल पाया है तो परलोक में जरूर मिलेगा, इसलिये परलोक से डर कर पाप मत करो। भावना के भेद से भय अनेक तरह का होता है। परलोक से डरने का अर्थ जहाँ कर्म फल पर विश्वास है और उस विश्वास से पाप से दूर होने का विचार है वह बुरी चीज नहीं है। ऐसा भय तो सम्यग्दृष्टि के संवेग चिह्न में बताया गया है । परन्तु एक दूसरे प्रकार का डर होता है जो पापी के मन में वास करता है। जिस प्रकार एक ईमानदार आदमी न्यायाधीश से नहीं डरता, क्योंकि वह जानता है कि वह निरपराध है और निरपराध को न्यायाधीश दण्ड नहीं दे सकता, किन्तु एक | अपराधी व्यक्ति न्यायाधीश के नाम से कांपता है। सम्यग्दृष्टि जीव निरपराधी के समान है। इसलिये उसे परलोक का भय नहीं होता। -स्वामी सत्यवत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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