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श्रीमद् राजचन्द्र की दृष्टि में सम्यग्दर्शन
= डॉ. उदयलाल जारोली* श्रीमद् राजचन्द्र बीसवीं शती के आध्यात्मिक पुरुष थे। सम्यग्दर्शन पर उनका गहन चिन्तन उपलब्ध होता है। डॉ. जारोली ने श्रीमद् राजचन्द्र जी के साहित्य एवं पत्रों से उनके विचारों को इस लेख संजोया है।-सम्पादक
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माहात्म्य __“सम्यक्त्व केवलज्ञान से कहता है-'मैं इतना कर सकता हूं कि जीवन को मोक्ष में पहुंचा दूँ और तू भी यही कार्य करता है। तू उससे कुछ विशेष कार्य नहीं कर सकता, तो फिर तेरी अपेक्षा मुझमें न्यूनता किस बात की? इतना ही नहीं अपितु तुझे प्राप्त करने में मेरी जरूरत रहती है।'' ___ "इस अनादि-अनन्त संसार में अनन्त-अनन्त जीव तेरे आश्रय के बिना अनन्त-अनन्त दुःख का अनुभव करते हैं। तेरे परमानुग्रह से स्वस्वरूप में रुचि हुई, परम वीतराग स्वभाव के प्रति परम निश्चय हुआ, कृतकृत्य होने का मार्ग ग्रहण
हुआ। २
वचनामृत की उक्त दो बूंदों से हम सम्यक्त्व का माहात्म्य समझ सकते हैं। जगत् के सर्व क्लेशों, संसार के जन्म-जरा-मृत्यु रूपी समस्त दुःखों का अन्त सम्यक् दर्शन से होता है। दुःखों से निवृत्ति, सुख की प्राप्ति सभी जीव चाहते हैं, परन्तु सुख-दुःख के वास्तविक स्वरूप की समझ के बिना दुःख नष्ट नहीं होते। उस दुःख के आत्यंतिक अभाव का नाम मोक्ष है। अत्यन्त वीतराग हुए बिना आत्यंतिक मोक्ष नहीं होता। सम्यक् ज्ञान के बिना वीतराग नहीं हुआ जा सकता तथा सम्यक् दर्शन के बिना ज्ञान असम्यक् कहा जाता है। मूल मार्ग
वस्तु की जिस स्वभाव से स्थिति है, उस स्वभाव से उस वस्तु की स्थिति समझ में आने को सम्यक् ज्ञान कहते हैं । 'जे ज्ञाने करीने जाणियुं रे, तेनी वर्ते ते शुद्ध प्रतीत, का भगवंते दर्शन तेहने रे, जेनू बीजू नाम समकित। सम्यक् दर्शन से प्रतीत हुए आत्मभाव से आचरण करना चारित्र है। इन तीनों की एकता से मोक्ष है। यह जिनेश्वर का मूल मार्ग है। तत्वार्थ प्रतीति
जीव स्वाभाविक है। परमाणु स्वाभाविक है। जीव अनंत हैं। परमाणु अनंत हैं। • जीव-पुद्गल का संयोग अनादि है। जब तक जीव का पुद्गल से संबंध है तब तक वह सकर्म जीव कहा जाता है। भाव कर्म का कर्ता जीव है। यही विभाव है। इससे जीव पुद्गल का ग्रहण करता है। उसे तैजस आदि शरीरों का ग्रहण होता है। वैभाविक भाव से विमुख हो तो जीव निज परिणामी होता है। सम्यक् दर्शन के बिना वह संभव नहीं
* पूर्व प्राचार्य,विधि महाविद्यालय,नीमच (मप्र)
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