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सम्यग्दर्शन: शाखीय-विवेचन
१९३ होते हैं सत्ता में विद्यमान रहते हैं तथापि उदय से पूर्व वे भोगने योग्य नहीं होते। वे ही कर्म मिथ्यादृष्टि दशा में उदयकाल में भोगने योग्य होने पर नये कर्मों को बांधते हैं। रागादि भावास्रव के सद्भाव में द्रव्यप्रत्यय बन्धकारक होते हैं और रागादि भावास्रव के अभाव में द्रव्य प्रत्यय बन्धकारक नहीं होते हैं; इसीलिये सम्यग्दृष्टि के कर्मबन्ध नहीं माना जाता है, वह अबन्धक कहा गया है - 'सम्मादिट्ठी अबंधगो भणिदो' (समयसार v/१३) सम्यग्दृष्टि पुद्गलकर्म के उदय को भोगता हुआ भी कर्म से नहीं बंधता, जैसे विषवैद्य विष का उपयोग करता हुआ भी मरण को प्राप्त नहीं होता। (समयसार VII/३)
सम्यग्दर्शन आत्मा का निज वैभव है (समयसार अध्याय /गाथा ५)।
सम्यग्दष्टि स्वयं को ज्ञायक स्वभाव जानता है और आत्मतत्त्व को जानता हुआ कर्मोदय के विपाक से उत्पन्न भावों को छोड़ देता है
एवं सम्मादिट्ठी अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं ।
उदयं कम्मविवागं च मयदि तच्चं वियाणंतो । समयसार VII/८ सम्यग्दृष्टि के रागभाव नहीं होता, अतः विषयों के सेवन में आसक्त नहीं होता, विषयों का सेवन करता हुआ भी उनका सेवन नहीं करता। किन्तु अज्ञानी विषयों में रागभाव के कारण उनका सेवन नहीं करता हुआ भी सेवन करने वाला होता है । 'राग पुद्गलकर्म है। उसके फलरूप उदय से उत्पन्न यह राग रूप भाव है। यह मेरा भाव नहीं है। मैं टंकोत्कीर्ण ज्ञायक भाव हूँ' ऐसा जानता हुआ सम्यग्दृष्टि ज्ञान-वैराग्य सम्पन्न होता है
उदयविवागो विविहो कम्माजं वण्णिदो जिणवरेहि।
णहुत मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को । समयसार VI/६ कुन्दकुन्दाचार्य ने स्पष्ट कहा है कि जिस जीव के रागादि का लेशमात्र भी विद्यमान है वह जीव सम्पर्ण शास्त्रों का ज्ञाता होने पर भी आत्मा को नहीं जानता और आत्मा को न जानता हुआ वह अनात्मा को भी नहीं जानता। इस प्रकार जीव और अजीव को न जानने वाला किस प्रकार सम्यग्दृष्टि हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता है- 'किह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो। समयसार VI/१०. सम्यग्दृष्टि जीव निश्शंक होने के कारण सप्तभय से मुक्त होता है
सम्मादिट्ठी जीवा जिस्संका होति णिम्पया तेण।। :: सतभयविष्पमुक्का जम्हा तम्हा दुणिस्संका । समयसार, VII/३६..
सम्यग्दृष्टि जीव सप्तभय से मुक्त तथा (१). निशंक (२) निष्कांक्ष, (३) निर्विचिकित्स (४) अमूढदृष्टि (५) उपगूहनकारी : (६) स्थितिकरणयुक्त एवं (७) वात्सल्यभावयुक्त जाने जाते हैं। . .. (१) कर्मबन्ध का भ्रम उत्पन्न करने वाले मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग चारों को काट देने वाला जीव निःशंक सम्यग्दृष्टि मानना चाहिये।
(२) जो जीव कर्मों के फल तथा समस्त धर्मों की कांक्षा नहीं करता उसे निष्काक्ष सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये।
(३) जो आत्मा सभी धर्मों (वस्तु-स्वभाव) के प्रति जुगुप्सा (ग्लानि) नहीं करता
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