SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .................. १९२ जिनवाणी-विशेषाङ्क करता है (अनुचरण करता है) तथैव मोक्षकामी पुरुष जीव रूपी राजा को जाने, उसी का श्रद्धान करे, उसी का अनुचरण या अनुभव करे दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो॥-समयसार ।/१६ जीव के अतिरिक्त सभी भाव पर हैं यह जानकर साधु उन्हें त्याग देता है, इस कारण प्रत्याख्यान ज्ञान ही है सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खादी परे त्ति णादण। -समयसार //३४ समस्त नयपक्ष से रहित समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का नाम पाता सम्मइंसणणाणं एसो लहदि ति णवरि ववदेसं। सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो ॥-समयसार III/७६ __ कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत नियमसार के अनुसार आप्त-आगम और तत्त्वों में श्रद्धा ही सम्यक्त्व है 'अत्तागमतच्चाणं सहहणादो हवेड सम्मत्तं ।' नियमसार. ५ आप्त, आगम तथा तत्त्वार्थ का निरूपण करते हुए कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार जो क्षुधा आदि समस्तदोषरहित तथा केवलज्ञानादि समस्त गुण सहित हैं वे आप्त जाने जाते हैं। आप्त के मुख से निःसृत वचन जो पूर्वापरदोषरहित तथा शुद्ध हों, वह आगम कहलाता है। आगम में जीवादि तत्त्वार्थ निरूपित होते हैं। नियमसार में अन्य प्रसङ्गों पर भी सम्यक्त्व की चर्चा की गई है, यथा- विपरीत अभिनिवेश से रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है (नियमसार, ५१)। चल-मलिन-अगाढ दोषों से रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व का निमित्त (बाह्य) कारण जिनसूत्र तथा जैन आगमों के ज्ञाता हैं तथा दर्शनमोह का क्षय आदि सम्यक्त्व के अन्तरङ्ग कारण हैं। मिथ्यात्व से सम्यक्त्व तथैव तिरोहित हो जाता है जैसे मैल से वस्त्र का श्वेतपन नष्ट हो जाता है । (समयसार।v/१३)। कुन्दकुन्दाचार्य ने रत्नत्रय के प्रतिबन्धक की चर्चा की है। सम्यक्त्व का प्रतिबन्धक मिथ्यात्व है जिसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है। ज्ञान का प्रतिबन्धक अज्ञान है जिसके उदय से जीव अज्ञानी होता है। चारित्र का प्रतिबन्धक कषाय है जिसके उदय से जीव चारित्ररहित होता है। सम्यग्दृष्टि के आस्रवों का अभाव है। सम्यग्दृष्टि के आस्रवनिमित्तक बन्ध नहीं है, किन्तु आस्रव का निरोध है। नवीन कर्मों को न बांधता हुआ वह सत्ता में विद्यमान पूर्व में बांधे हुए कर्मों को जानता है णत्थि दु आसवबंधो सम्मादिहिस्स आसवणिरोहो। संते पुव्वणिबद्धे जाणदि सो ते अबंधंतो। -समयसार V/३ रत्नत्रय का जघन्यभाव कर्मबन्ध का कारण है। (समयसार v/९) दर्शन, ज्ञान और चारित्र जघन्यभाव से जो परिणमन करते हैं उसके कारण ज्ञानी जीव पुद्गल कर्मों के बन्ध को प्राप्त होता है। 'सम्यग्दृष्टि के कर्मबन्ध नहीं होता' इसे कुन्दकुन्दाचार्य ने स्पष्ट किया है। सम्यग्दृष्टि जीव के पूर्व की सराग दशा में बांधे हुए सभी द्रव्यास्रव सत्ता में विद्यमान हैं। वे उपयोग के प्रयोगानुसार कर्मभाव/रागादि भाव प्रत्ययों के द्वारा बन्ध को प्राप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy