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कुन्दकुन्दाचार्य-प्रतिपादित सम्यग्दर्शन का स्वरूप
- डॉ.(श्रीमती) सुषमा सिंघवी* _ 'जीवादिसद्दहणं सम्मत्तं' समयसार (अध्याय ।v/गाथा 11) में मोक्षमार्ग की व्याख्या के प्रसङ्ग में कुन्दकुन्दाचार्य ने सम्यग्दर्शन का स्वरूप निरूपण करते हुए कहा कि जीवादि नौ पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। उन्हीं पदार्थों का संशय, विमोह और विभ्रम से रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है तथा रागादि का परित्याग सम्यग्चारित्र
जीव के उद्धार का मूल कारण श्रद्धा है। अपनी श्रद्धा स्थिर रहे तो सुधार निश्चित होता है। आत्मश्रद्धा से वञ्चित मनुष्य कितने ही उपाय करे, सुख नहीं पा सकता, संसार की यातनाओं से छूट नहीं सकता। इसलिए आत्मश्रद्धा से च्युत नहीं होने का उपदेश ही ज्ञानी जन देते हैं।
सम्यग्दृष्टि जीव को यह दृढ़ विश्वास (प्रतीति) होता है कि 'रागादि भाव निश्चय से न तो आत्मा के हैं और न ही पुद्गल के'। इस प्रतीति के कारण ही रागादि भाव स्वयं असहाय होकर क्षीण हो जाते हैं। यही सम्यग्दृष्टि के मुक्त होने का रहस्य है। रागादि वैभाविक, आकुल्योत्पादक, औपाधिक भाव हैं, इनमें हित की श्रद्धा नहीं करनी चाहिये। यह अकाट्य श्रद्धा ही आत्मश्रद्धा है कि हे आत्मन्, मैं अनादि अनन्त हूँ, शरीरादि सब पदार्थों से भिन्न हूँ। तृष्णा का स्वभाव ही आकुलता है और आत्मश्रद्धा ही मुक्ति का मार्ग।
कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा प्रतिपादित सम्यग्दर्शन को समझने हेतु कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा प्रस्तुत व्यवहार नय की आवश्यकता को ध्यान में रखना आवश्यक है-'तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं' (व्यवहार नय के बिना परमार्थ का उपदेश अशक्य है) तभी निश्चय नय और व्यवहार नय की दृष्टि से प्रस्तुत विषय को समझने में सहायता मिलेगी। निश्चयनय भूतार्थ है, व्यवहारनय अभूतार्थ ।
जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है निश्चय ही वह सम्यग्दृष्टि है - भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो। -समयसार ।/११ __ शुद्धनय से जानना सम्यक्त्व है। शुद्धनय से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, बंध ,निर्जरा और मोक्ष ये नवतत्त्व अभेदोपचार से सम्यक्त्व के विषय और कारण होने से सम्यक्त्व हैं। अथवा शुद्धनय से नव तत्त्वों को जानने से आत्मानुभूति होती है अतः नवतत्त्व सम्यक्त्व है
भूदत्येणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च ।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।।-समयसार ।/१३ कुन्दकुन्दाचार्य ने रत्नत्रय को निश्चय नय से आत्मा कहा। साधु को रत्नत्रय की उपासना का क्रम दृष्टान्तपूर्वक समझाते हुए कहा कि जिस प्रकार कोई अर्थार्थी (धन अथवा अन्य प्रयोजन का इच्छुक) पुरुष राजा को छत्र, चमर आदि राजचिह्नों से या अन्यथा पहचान कर उस पर श्रद्धान करता है उसके बाद प्रयत्नपूर्वक उसकी सेवा
* निदेशक ,क्षेत्रीय केन्द्र,कोटा खुला विश्वविद्यालय,उदयपुर
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