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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय- विवेचन १८९ वाले तो उपदेश के पात्र भी नहीं हैं । फिर उनके सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है ? मांसादि भक्षण करने वाले मनुष्य की बुद्धि मलिन रहती हैअष्टावनिष्टपुस्तकदुरितायतनान्यमूनि परिवर्ज्य । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः । पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ७४ करणानुयोग में कहा है कि उपशम सम्यग्दर्शन से पूर्व क्षयोपक्षम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पांच लब्धियां होती हैं। इनमें से पाँचवी करणलब्धि उसी भव्यजीव के होगी जिसका झुकाव सम्यक्त्व और चारित्र की ओर है। श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने लब्धिसार में कहा है- 'करणसम्मत्तचारित्ते' । सम्यक्त्व और चारित्र की तरफ झुके हुए भव्यजीव के ही करण लब्धि होती है 1 आज अफसोस की बात तो यह है कि मनुष्य को ज्ञान मिलने के उपरान्त भी वह धर्म को भोग का ही निमित्त मानता है । विशुद्धि लब्धि के बिना यानी परिणामों की विशुद्धता के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता । मद्य मांस मधु यानी हिंसाजन्य पदार्थों का सेवन करने वाले के परिणाम विशुद्ध नहीं हो सकते। अतः उसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कैसे हो सकती है । प्रशम (समता भाव), संवेग (संसार - परिभ्रमण से भय), अनुकम्पा ( पर दुःखकातस्ता) और आस्तिक्य (स्व-पर की यथार्थ मान्यता) ये चार भाव सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में कारण होते हैं और सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाने पर भी ये उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं, तो इन भावों को धारण करने वाला मद्य-मांस-मधु का सेवन कर संकल्पी हिंसा में कैसे प्रवृत्त हो सकता है। जिसे सम्यक्त्व उपलब्ध हो जाता है उसकी बाह्य और आभ्यन्तर की प्रवृत्तियों में गहरा परिवर्तन हो जाता है । व्रत रूप चारित्र भले ही उसने अभी धारण नहीं किया हो, परन्तु उसकी सारी स्वच्छन्द अनर्गल प्रवृत्ति छूट जाती है और वह विवेकपूर्ण जीवन जीने लगता है । अनादिकाल से निरन्तर बंधने वाली कर्मप्रकृतियों में से ४१ प्रकृतियों के बंध उसके रुक जाता है यानी इन कर्म प्रकृतियों को बांधने वाले परिणाम और क्रियाकलाप उसके योगों में से तिरोहित हो जाते हैं । आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखते हैंसम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यड्नपुंसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः ॥ जो जीव सम्यग्दर्शन से शुद्ध हैं वे व्रतरहित होने पर भी नारकी, तिर्यञ्च, नपुंसक, स्त्री- पने को प्राप्त नहीं होते हैं और नीचकुली, विकृत अंगी, अल्पायु और दरिद्री नहीं होते हैं । दूसरे शब्दों में प्रथम नरक बिन षट् ज्योतिष वान भवन षंढ नारी । थावर विकलत्रय पशु में नहीं उपजत समकितधारी ॥ विचारणीय यह है कि जब सम्यग्दृष्टि जीव को नीच गोत्र कर्म का भी बंध नहीं होता ( जिसके कारण हैं- “ परात्मनिन्दाप्रशंसे । सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य” यानी जिसके इतने सरल परिणाम हो जाते हैं) उसकी प्रवृत्ति में संकल्पी हिंसा, क्रूरता और खोटे अभिप्राय कैसे रह सकते हैं ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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