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जिनवाणी-विशेषाङ्क वहां कारण में कार्य का उपचार समझना चाहिये ।” __ जब तक आत्मा अपने गुणों का प्रत्यक्ष नहीं कर लेता तब तक उसे श्रद्धान करना ही होगा। जब श्रद्धान पक्का होगा तभी श्रद्धेय - पदार्थ/तत्त्वार्थ/आत्मा की ओर उसकी यात्रा होगी। आचार्यों ने इस दृढ़ श्रद्धान को वीतरागसम्यग्दर्शन का साधक हेतु स्वीकार किया है। इस निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ ही रत्नत्रय की अभिन्नता, लीनता और स्थिरता मानी गई है। सरागसम्यग्दर्शन परोक्ष पदार्थ का होता है और श्रद्धान तभी तक होता है जब तक पदार्थ परोक्ष है। वीतराग सम्यग्दर्शन का विषय आत्मतत्त्व, शुद्ध पदार्थ, शुद्ध अस्तिकाय और शुद्ध समयसार है ऐसा आचार्यों ने कहा है। पहले हमें जो सम्यग्दर्शन होगा वह व्यवहार सम्यग्दर्शन ही होगा। इसी के बल पर आगे बढ़ा जायेगा। निश्चय, व्यवहार बिना नहीं होता और व्यवहार जो होता है वह निश्चय के लिए होता है। ___ आचार्य विद्यासागरजी ने व्यवहार और निश्चय से पहले एक स्थिति और मानी है जिसका नाम उन्होंने निर्णय दिया है। वे कहते हैं- “निर्णय के बिना, अवाय के बिना कदम ही आगे नहीं उठा सकते । निश्चय का नाम साध्य है, व्यवहार साधन होता है । इस प्रकार जिस साध्य को सिद्ध करना है, प्राप्त करना है, उसका लक्ष्य बनाना निर्णय है और जिसके माध्यम से, साधन से साध्य सिद्ध होता है, वह व्यवहार है, तथा साध्य की उपलब्धि होना निश्चय है, इस तरह पहले निर्णय होता है, फिर व्यवहार और अन्त में निश्चय ।"वह निर्णय सही नहीं है जो व्यवहार की ओर कदम नहीं बढ़ाता और वह व्यवहार भी सही नहीं कहा जाता जो निश्चय तक नहीं पहुंच पाता ।वह मात्र व्यवहाराभास है।"
व्यवहार और निश्चय दोनों को समझना आवश्यक है। व्यवहार निश्चय के लिए है। जब तक निश्चय नहीं है तब तक व्यवहार का पालनपोषण करना जरूरी है। कार्य सम्पन्न हो जाने पर कारण की कोई कीमत नहीं रहती, लेकिन कार्य से पूर्व कारण की उतनी ही महिमा है जितनी कार्य की। व्यवहार पक्ष में हमें किस रूप से चलना है - यह जानना बड़ा जरूरी है। व्यवहार को व्यवहार बनाए रखना आवश्यक है, व्यवहाराभास नहीं।
आज बड़ी विषम स्थिति है। “सम्यग्दर्शन होने में दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय कारण है। सम्यग्दर्शन का बाधक मिथ्यात्व कर्म है, चारित्र मोहनीय कर्म बाधक कारण नहीं," ऐसा कह कर घोर असंयम का पोषण किया जा रहा है। इस पर गम्भीरता से विचार अपेक्षित है____ 'जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन' और 'जैसा पीवे पानी वैसी होवे वाणो' इस लोक-उक्ति के अनुसार हमारे खान-पान का आत्म-परिणामों पर प्रभाव अवश्य पड़ता है। यद्यपि भोजन जड़ पदार्थ है और आत्मा चैतन्य द्रव्य है फिर भी आहार का प्रभाव हमारे परिणामों पर साक्षात् देखा जाता है।
__ मद्यं मोहयति मनो मोहितचितस्तु विस्मरति धर्मम् ॥ पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ६२ अमृतचन्द्राचार्य ने तो मद्य, मांस, मधु और पांच उदम्बर फलों के भक्षण करने का त्याग करने वाले को ही जिनधर्म के उपदेश का पात्र माना है। इनका सेवन करने
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