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________________ समकित : स्वरूप, महत्त्व और शर्तें * Xxx डा. चेतन प्रकाश पाटनी साध्य के बारे में संसार में कोई विवाद नहीं है। विवाद है तो साधना को लेकर । संसार के सब प्राणी सुख चाहते हैं । निराकुलता का नाम सुख है, अतः 'आकुलता शिवमाहिं न तातैं - शिवमग लाग्यो चाहिए।' जैन दर्शन कहता है 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: ।' -त. सू. १/१ दर्शन, ज्ञान और चारित्र जो सम्यक् हैं - वे मोक्ष का मार्ग हैं, अलग-अलग नहीं, मिल कर मोक्ष का मार्ग हैं। आचार्य उमास्वाति परिभाषा देते हैं 'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' -त. सू. १ / २ I अर्थात् तत्त्व और उसके अर्थ पर श्रद्धान रखना सम्यग्दर्शन है । देखना सम्यग्दर्शन नहीं है । जो दिखता है वह तत्त्व नहीं, जो दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, वे भी दिखा नहीं सकते | क्या कोई वस्तुतत्त्व को हथेली पर रख कर आंखों से देख सकता है या दिखा सकता है ? साक्षात् तीर्थङ्कर भी देशना दे रहे हों तब भी जो तत्त्व आयेगा वह परोक्ष ही होगा । श्रद्धान परोक्ष पदार्थ का होता है, उसमें लीन होने के बाद अध्यात्म में उसका नाम संवेदन है । आगम में 'सम्यग्दर्शन' श्रद्धान का ही नाम है, लेकिन कोरे श्रद्धान से तीन काल में भी मोक्ष नहीं मिलता। बात यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीनों एक उपयोग की तीन धाराएं हैं। जिस धारा के द्वारा तत्त्वों पर श्रद्धान किया जाता है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। जब वही धारा चिन्तन संलग्न हो जाती है तो सम्यग् ज्ञान कहलाती है और जब कषायों का परित्याग या रागद्वेष का विमोचन करने में प्रवृत्त होती है तब उसे ही सम्यक् चारित्र से अभिहित किया जाता है । इन तीनों की एकता से ही शिवत्व सम्भव है, अन्यथा नहीं । अमृतचन्द्राचार्य 'आत्मख्याति' में यही कहते हैं- " तत्र सम्यग्दर्शनं तु जीवादिश्रद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम् । जीवादिज्ञानस्वभावेन) ज्ञानस्य भवनं ज्ञानं । रागादिपरिहरणस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं चारित्रम् । ” सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीन नहीं हैं, किन्तु उपयोग की धारा में जब तक भेद प्रणाली चलती है तब तक ये भिन्न-भिन्न माने जाते हैं । परन्तु मार्ग तीनों मिलकर ही बनाते हैं । आचार्यों ने मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन को कर्णधार बताया है दर्शनं ज्ञानचारित्रात् साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ।। रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ३१ सम्यग्दर्शन कर्णधार है, क्योंकि इसके होने पर ही ज्ञान 'सम्यग्ज्ञान' और चारित्र 'सम्यक् चारित्र' की संज्ञा प्राप्त करता है । पण्डित पन्नालालजी साहित्याचार्य ने 'रत्नकण्डक श्रावकाचार' की प्रस्तावना में सम्यग्दर्शन के पाँच लक्षण बताये हैं - १. परमार्थ देव - शास्त्र - गुरु की प्रतीति २. तत्त्वार्थश्रद्धान ३. स्वपर का श्रद्धान ४. आत्मा का श्रद्धान ५. सात कर्मप्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय से प्राप्त श्रद्धागुण की निर्मल परिणति । इन लक्षणों में पांचवां लक्षण साध्य है और शेष चार उसके साधन हैं। जहां इन्हें सम्यग्दर्शन कहा है * सह आचार्य, हिन्दी- विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर (राज.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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