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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन २०. प्रश्न-काललब्धि का क्या अर्थ है ? उत्तर-जिस आत्मा का मुक्त होने का स्वभाव दबा हुआ हो, जो अनादिकाल से अज्ञान अन्धकार में भटक रहा हो, जिस पर मिथ्यात्व रूपी कालिमा अनादिकाल से जम रही हो ऐसी आत्मा का जब भव्यत्व रूप स्वभाव प्रकट होने का काल निकट आता है तब उसकी आत्मा पर कालिमा घटते-घटते उज्ज्वलता आती है वह कृष्ण पक्ष से शुक्लपक्षी होता है । इसे काललब्धि कहते हैं। २१. प्रश्न-काललब्धि अथवा जीव का कृष्णपक्षी से शुक्लपक्षी होना यह सरलता से समझ में आ जाय, इसका कोई उदाहरण दीजिये? उत्तर-जैसे कोई पत्थर नदी में बहता हुआ टकरा-टकरा कर बहुत काल के बाद गोल-मटोल हो जाता है उसी प्रकार जीव अनादिकाल से जन्म-मरण करते हुए अकाम निर्जरा करते-करते जितने समय के बाद मिथ्यात्व त्याग करने के योग्य होता है उस काल को काललब्धि कहते हैं। २२. प्रश्न यथाप्रवृत्तिकरण किसे कहते हैं ? उत्तर-आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों में प्रत्येक की स्थिति को अंतः कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण रख कर शेष स्थिति को क्षय कर देने वाले सम्यक्त्व के अनुकूल आत्मा के अध्यवसाय विशेष को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। २३. प्रश्न-अपूर्वकरण किसे कहते हैं? उत्तर-यथाप्रवृत्तिकरण से अधिक विशुद्ध रागद्वेष की तीव्रतम गांठ को तोड़ने रूप आत्म-परिणाम को अपूर्वकरण कहते हैं। इस प्रकार का परिणाम पूर्व में कभी नहीं होने से अपूर्वकरण कहलाता है। २४. प्रश्न अनिवृत्तिकरण किसे कहते हैं? उत्तर-अपूर्वकरण से भी अधिक विशुद्ध आत्म-परिणाम, जिससे मिथ्यात्व की गांठ टूट कर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। अनिवृत्तिकरण करने वाला जीव सम्यक्त्व को अवश्य प्राप्त करता है। २५. प्रश्न-सम्यक्त्वी जीव की क्या विशेषता है? उत्तर-सम्यक्त्वी (सम्यग्दृष्टि) सात स्थान के आयुष्य का नया बंध नहीं करता है। २६. प्रश्न-ये सात स्थान कौन-कौन से हैं ? उत्तर-१. नारकी २. तिर्यंच ३. स्त्री ४. नपुंसक ५. भवनपति ६. वाणव्यंतर और ७. ज्योतिषी । सम्यक्त्वी जीव इन सात स्थानों का बंध नहीं करता है। २७. प्रश्न सम्यक्त्व प्राप्त होने पर स्थायी रहे तो जीव कितने भव करके मोक्ष प्राप्त करता है? उत्तर-जघन्य तीसरे भव में उत्कृष्ट ७-८ (पन्द्रह) भव में मोक्ष पाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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