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________________ सम्यग्दर्शन-गाथानुवाद p डॉ. हरिराम आचार्य गाथा काव्यानुवाद १. धम्मादीसद्दहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं। चिट्ठा तवंसि चरिया ववहारो मोक्खमग्गो त्ति। धर्म आदि में श्रद्धा है सम्यक् दर्शन, ज्ञान अंगपूर्वो का सम्यक् ज्ञान है। तप-निष्ठा में वर्तन है सम्यक् चारित्र, यही रत्न-त्रय सच्चा मोक्ष-विधान है ।। २. नादंसणिस्स नाणं सम्यक् दर्शन बिना न होता ज्ञान है, नाणेण विणा न हुँति चरणगुणा। बिना ज्ञान कैसा चारित्र्य-विधान है ? अगुणिस्स नत्थि मोक्खो बिन चारित्र्य मोक्ष कैसे मिल पाएगा? नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं॥ मोक्ष बिना निर्वाण कहाँ से आयेगा? ३. अप्पा अप्पम्मि रओ आत्मा से आत्मारत होना। सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो। ही सम्यक् दर्शन कहलाता। जाणइ तं सण्णाणं आत्मज्ञान संज्ञान रूप है, चरदिह चारित्तमग्गु त्ति ॥ आत्म-चरण चारित्र्य कहाता । मोक्ष-महातरु का महिमामय मूल है, सम्यक् दर्शन रत्न-त्रय का सार है। दो भेदों में इसका रूप विभक्त है, एक रूप 'निश्चय', दूजा ‘व्यवहार' है। ४. सम्मत्त रयणसारं मोक्खमहारुक्खमूलमिदि भणियं। तं जाणिज्जइ णिच्छयववहार-सरूवदो भेयं ।। ५. जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणीपत्तं सहावपयडीए। तह भावेण ण लिप्पइ कसाअ-विसएहिं सप्पुरिसो॥ जैसे शतदल सहज प्रकृति के कारण, लिप्त नहीं होता है कभी सलिल से। वैसे ही सम्यक्त्व भाव से सज्जन लिप्त न होता कभी कषाय-कलिल से ॥ ४२ ए, पर्णकुटी, गंगवाल पार्क, जयपुर-३०२ ००४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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