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जिनवाणी- विशेषाङ्क
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विकास होता है । यह आत्म-विकास चन्द्रकला के बढ़ने से चन्द्रमा के विकास के समान बढ़ता जाता है I
उपसंहार
सारांश यह है कि मन जितना निर्विकल्प होता जाता है उतना दर्शन गुण प्रकट होता जाता है तथा उतना ही मन शान्त होता जाता है। मन की शान्त स्थिति का भी एक रस है, यह शान्तरस भी दर्शन का रस है । इस शान्त रस का भोग न करने से इसके प्रति समत्वभाव बनाये रखने से, द्रष्टा बने रहने से दर्शनावरणीय का आवरण और हटता है, जिससे ग्रन्थि-भेदन का प्रत्यक्षीकरण तथा आत्म-साक्षात्कार होता है । फलस्वरूप अंतःकरण में जीवन के प्रति दृष्टि बदल जाती है । फलतः 'विषय भोग ही जीवन है' यह मिथ्या मान्यता ( मिथ्यात्व ) बौद्धिक चिंतन स्तर पर तथा आंतरिक (चैतन्य के स्तर पर मिट जाती है । यह प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है कि भोग का सुख, सुख नहीं है, प्रत्युत उत्तेजना, आकुलता, पराधीनता एवं जड़ता उत्पन्न करने वाला होने से दुःख रूप है । अतः भोग जीवन नहीं है । निर्विकल्प एवं निर्विकार होने पर जो निज - रस आता है वह अक्षय- अखंड एवं स्वाधीन होता है । इस प्रकार सत्य के साक्षात्कार के आधार पर भोग में दुःख और त्याग में सुख अनुभव करना अथवा जीवन के प्रति दृष्टि बदल जाना ही सम्यग्दर्शन है।
दर्शन है निर्विकल्प होना, और निर्विकल्प होने से चित्त शान्त होता है । शान्तचित्त में, समता भरे चित्त में यथार्थता का अनुभव होता है जो सम्यग्दर्शन है और इससे विवेक रूप सम्यग्ज्ञान प्रकट होता है ।
इस दृष्टि से दर्शनगुण का विकास ही सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में, दर्शन मोह के क्षय में हेतु है और सम्यग्दर्शन 'सम्यग्ज्ञान' की उत्पत्ति में हेतु होता है। सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के अनुरूप आचरण सम्यक् चारित्र है, जिसका फल मुक्ति के रूप में प्रकट होता है ।
दर्शनोपयोग (निर्विकल्पता) सम्यक् दर्शन की उपलब्धि में व दर्शनमोह के क्षय में सहायक होता है । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान में सहायक होता है । सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान के अनुरूप आचरण करने ( चारित्र पालन) से दर्शन व ज्ञान गुण के आवरण का क्षय होता है, जिससे दर्शन व ज्ञान गुण प्रकट होते हैं । इस प्रकार दर्शनोपयोग सम्यग्दर्शन में और सम्यग्दर्शन दर्शनगुण प्रकट करने में तथा दर्शनावरण व दर्शन मोहनीय के क्षय करने में सहायक होता है। इस प्रकार दर्शनोपयोग, सम्यग्दर्शन, दर्शनगुण परस्पर में पूरक व सहायक हैं। आगे जाकर, अंत में पूर्ण दर्शन, पूर्ण ज्ञान अथवा अनंतदर्शन अनंत ज्ञान के रूप में प्रकट होकर ये साधक के जीवन के अभिन्न अंग बन जाते हैं । फिर साधक-साधना-साध्य एक रूप होकर सिद्धत्व को प्राप्त हो जाते हैं । सिद्धत्व की प्राप्ति में ही जीवन की सिद्धि है, सफलता है, पूर्णता है ।
- २८११, घी वालों का रास्ता, जयपुर (राज.)
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