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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय- विवेचन
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लिए, उपचार के लिए आकुल-व्याकुल रहता है तथा बाहरी उचित - अनुचित साधन जुटाता है । सम्यग्दृष्टि पीड़ाओं, कष्टों, रोगों आदि के उत्पन्न होने पर उन्हें समभाव से, शान्ति से सहन करता है, चिकित्सा नहीं करता है, और आर्त्तध्यान व संकल्प-विकल्प भी नहीं करता है, यह निर्विचिकित्सा दर्शनाचार है I
अमूढदृष्टि - मूढता का अर्थ है अज्ञानता । अज्ञानता है मिथ्या मान्यता या मिथ्यात्व । मिथ्यात्व है स्वभाव, साधना, सिद्ध, साध्य आदि के विषय में विपरीत धारणा होना । सम्यकदृष्टि इन मिथ्या धारणाओं से दूर रहता है । वह स्वभाव में स्थित होने को ही धर्म मानता है । आत्मा की पूर्ण शुद्ध वीतराग अवस्था को ही देव मानता है । स्वाभाविक ज्ञान एवं सनातन सत्य - सिद्धान्त रूप सम्यग्ज्ञान को ही गुरु मानता है । सम्यग्दृष्टि राग-द्वेष वर्द्धक प्रवृत्तियों को धर्म नहीं मानता है, रागी को देव नहीं मानता है, भोगी को गुरु नहीं मानता है। यह दर्शनाचार का अमूढदृष्टि आचार है ।
उपगूहन—- उपगूहन का अर्थ है अंतर्गुफा में स्थित होना । सम्यग्दृष्टि बहिरात्मा से विमुख होकर अंतरात्मा में स्थित होने का प्रयत्न करता है । अंतर्मुखी होकर अंतरात्मा में अपने आप में स्थित होना उपगूहन है । अपने आप में स्थित रहने से संकल्प- विकल्प नहीं उठते, जिससे दर्शन गुण प्रकट होता है ।
स्थिरीकरण -- अपने स्वरूप में स्थित रहना स्थिरीकरण है। सम्यग्दृष्टि अपने स्वरूप में अपने स्वभाव रूप धर्म में स्थित रहने का प्रयत्न करता है जिससे संकल्प - विकल्प उठना रुकता है और दर्शन गुण प्रकट होता है ।
वात्सल्य - जैसे माता अपने वत्स के हित के लिए अपनी शक्ति अनुसार सब कुछ करती है और प्रतिफल कुछ भी नहीं चाहती है । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि का संसार के सर्व प्राणियों के प्रति पूर्ण हितकारी वात्सल्य भाव होता है, सबके हितकी, कल्याण की, मंगल की भावना होती है जिससे हृदय में प्रसन्नता उमड़ती है, जिससे चित्त शान्त होता है, निर्विकल्प होता है और दर्शन गुण प्रकट होता है ।
प्रभावना - सम्यग्दृष्टि का लक्ष्य ध्रुवत्व की, अविनाशी की, सत्य की, सत् की उपलब्धि करना होता है । सत् की प्राप्ति की भावना सद्भावना है। यह प्रकृष्ट भावना होती है । प्रकृष्ट भावना ही प्रभावना है। सद्भावना से विषय - कषाय, राग-द्वेष आदि विकार एवं असद्भाव गलता है, संकल्प-विकल्प मिटते हैं, दर्शन गुण प्रकट होता है ।
सम्यग्दृष्टि के उपर्युक्त आठों आचरण या गुण, राग-द्वेष, आर्त्त - रौद्र ध्यान एवं संकल्प-विकल्प को दूर करने, दर्शनावरणीय को क्षय करने तथा दर्शन गुण प्रकट करने में सहायक होते हैं; जबकि इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि का आचरण शंका (संदेह), कांक्षा (कामना), चिकित्सा, मूढ़ता, बहिर्दृष्टि, स्वार्थपरता, चांचल्य, दुर्भावना रूप होने से संकल्प-विकल्प उत्पन्न करने वाला एवं दर्शन पर आवरण करने वाला होता है ।
सम्यग्दृष्टि का लक्ष्य उपर्युक्त आचारों का अधिकाधिक आचरण करने का रहता । उसके आचरण में ये गुण जितने बढ़ते जाते हैं उतना ही उसका दर्शनावरणीय कर्म का आवरण हटता जाता है जिससे उसका दर्शनगुण (चेतनता - संवेदनशीलता) का
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