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________________ १७४ जिनवाणी-विशेषाङ्क स्व-संवेदन, चिन्मय-स्वरूप 'दर्शन' गुण प्रकट होता है। दर्शन गुण से निज अविनाशी चैतन्यस्वरूप आत्मा देह से भिन्न है इस सत्य का अनुभव होता है। यही जड़-चिद् ग्रंथि का भेदन है, यही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन से दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व मोहनीय प्रकृति के उदय का अभाव हो जाता है। अतः दर्शन गुण दर्शनमोहनीय के क्षय-उपशम का हेतु है। तात्पर्य यह है कि दर्शनगुण और सम्यग्दर्शन में घनिष्ठ संबंध है। इसलिये सम्यक्दृष्टि का प्रत्येक आचरण दर्शनगुण को प्रकट करने वाला, निर्विकल्पता को पुष्ट करने वाला होता है। आगम में सम्यग्दर्शन के आठ आचार कहे हैं । इनका विवेचन आगे किया जा रहा है। सम्यग्दर्शन के आठ आचार। ___ सम्यग्दर्शन से जीवन में आठ आचारों का, सद्प्रवृतियों का आविर्भाव होता है, जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र २८ गाथा ३१ में कहा है __णिस्संकिय-णिक्कंखिय-णिवितिगिच्छा, अमढदिद्रीय। उववह थिरीकरणे, वच्छल्ल-पभावणे अट्ट । अर्थात् निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ दर्शनाचार हैं। रत्नकरंड श्रावकाचार में ये आठों सम्यग्दर्शन के अंग कहे गये हैं। इन आचारों से संकल्प-विकल्प मिटते हैं, निर्विकल्पता बढ़ती है जिससे दर्शनगुण प्रकट होता है। अतः इन्हें दर्शनाचार कहा गया है। निःशंकित-सम्यग्दृष्टि को यह बोध होता है कि पराधीनता, जड़ता, खिन्नता, नीरसता, दीनता, हीनता, चिन्ता, भय आदि समस्त दुःखों का मुख्य कारण इन्द्रिय-विषयों के भोगों की कामना, ममता, मोह एवं कषाय हैं। अतः विषय-कषाय के त्याग पूर्वक, स्वभाव में स्थित होने में ही अपना कल्याण है। इसमें उसे किंचित् भी शंका-संदेह व विकल्प नहीं रहता है। निर्विकल्प होने से दर्शन गुण प्रकट होता है। यह निःशंकित दर्शनाचार है। नि:कांक्षित-सम्यग्दृष्टि अपनी अनुभूति के आधार पर यह जानता है कि कांक्षा अर्थात् कामना की उत्पत्ति ही अशांति का, अभाव का, कामना अपूर्ति-पूर्ति रूप पराधीनता का कारण है। कामना पूर्ति के समय होने वाले सुख की प्रतीति उस समय कामना न रहने से निष्कांक्ष होने से होती है। अतः सुख कामना पूर्ति में नहीं है कामना के अभाव में है। कामना-पूर्ति का सुख सुखाभास है, भ्रान्तिमात्र है। अतः विषय-सुखों की आकांक्षाओं के त्याग में ही अपना कल्याण है। इस निःकांक्षित भाव से चित्त शान्त व निर्विकल्प होता है जिससे दर्शन गुण की अभिव्यक्ति होती है। यह निःकांक्षित दर्शनाचार है। निर्विचिकित्सा–चिकित्सा का अर्थ है उपचार । उपचार उसी का किया जाता है जिससे अरुचि हो, जो नापसंद हो, जिससे घृणा हो। अरुचि अपने कष्टों, पीड़ाओं, प्रतिकूल परिस्थितियों एवं दुःखों से होती है। इन्हें दूर करने का उपाय ही उपचार कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि अपने कष्टों-पीडाओं से आर्त होकर उन्हें दूर करने के For Personal & Private Use Only . Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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