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नूतन-चिन्तन सम्यग्दर्शन की आगमिक-सन्दर्भ में संगति
कन्हैयालाल लोढ़ा दर्शन, दर्शनगुण, दर्शनावरण, दर्शनापयोग एवं दर्शन मोहनीय से सम्यग्दर्शन का क्या भेद है, इसका सूक्ष्म प्रतिपादन लरते हुए जैनागम-मर्मज्ञ श्री लोढा सा. ने दर्शनगुण के विकास को सम्यग्दर्शन में सहायक माना है। लेखक ने अपने इस लेख में मिथ्यात्व के दश प्रकारों एवं सम्यग्दर्शन के आठ आचारों पर नया किन्तु संगत विचार किया है। आशा है पाठकों को इस लेख में सम्यग्दर्शन पर नया चिन्तन एवं प्रकाश प्राप्त होगा। -सम्पादक __ भारतीय भाषाओं में 'दर्शन' शब्द का प्रयोग देखना मान्यता, अनुभव, साक्षात्कार आदि अनेक अर्थों में होता है। इनमें 'दर्शन' का अर्थ किती मान्यता का बौद्धिक स्तर पर प्रतिपादन करना भी है। इसे अंग्रेजी में फिलासॉफी (Philosopy) कहते हैं। इसमें मुख्यतः जीव और जगत् क्या है, सत्य है या असत्य, द्वैत है या अद्वैत या अन्य कुछ है, इसका कर्ता कोई है या नहीं, आदि पर विचार किया जाता है। इसमें प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति आदि प्रमाणों से या तर्क-वितर्क से किसी मान्यता का समर्थन व विरोध बौद्धिक स्तर पर किया जाता है । इस दर्शन में तर्क-वितर्क, वाद-विवाद ही मुख्य होता है, अनुभूति नहीं । यह दार्शनिकों का दर्शन है। यह दर्शन ऐसा ही है जैसे किसी के तीर लगा हो उस तीर को निकालने के बजाय यह तीर किसने, किस धातु से, कब और कैसे बनाया, तीर चलाने वाला पुरुष था या नारी, बालक था या जवान या बूढा, उसने तीर दाहिने हाथ से चलाया या बायें हाथ से, और इन सब बातों के उत्तर का क्या प्रमाण है इत्यादि तर्क-वितर्क व वाद-विवाद बहस करते रहना। एक युग था तब ब्रह्मांड से संबंधित दार्शनिक मान्यताओं पर शास्त्रार्थ होते थे। उनमें छल, जल्प, जाति, वितंडा, हेत्वाभास, निग्रह, आदि का प्रयोग होता था और जो तर्क देने में निपुण होता था वह ही विजयी हो जाता था। अब वह दार्शनिक युग समाप्त हो गया है, उसकी उपयोगिता नहीं रही है। अतः प्रस्तुत लेख में उस दार्शनिक दर्शन का विचार व विवेचन न करके जैन दर्शन में वर्णित 'दर्शन' का ही विवेचन अभीष्ट है। दर्शनगुण दर्शनोपयोग
जैनदर्शन में जीव का लक्षण 'दर्शन' और 'ज्ञान' को कहा है। इनमें पहले दर्शन होता है और पीछे ज्ञान होता है। अर्थात् दर्शन होने पर ही ज्ञान होता है अतः दर्शन का महत्त्व ज्ञान से भी अधिक है। (धवलाटीका पुस्तक, १ पृष्ठ ३८५) दर्शन है 'स्व-संवेदन'। इसी दर्शन के निर्विकल्पता, अनाकार, अभेद, सामान्य, अंतर्मुख चैतन्य, अंतरंग ग्रहण, आलोचन, अव्यक्त, निर्विशेष आदि पर्यायवाची शब्द हैं। वस्तुतः जिसमें संवेदन गुण है वही चेतन है, जीव है। संवेदन होने के पश्चात् उस संवेदना के प्रति अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा आदि विकल्पों के रूप में ज्ञान होता है। संवेदना न हो तो ज्ञान का उपयोग ही न हो। अतः जहां संवेदन शक्ति रूप दर्शनगुण है वहां ही * अधिष्ठाता , श्री जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान बजाजनगर, जयपुर एवं अध्यक्ष, अ.भा. जैन विद्वत्परिषद्,जयपुर
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