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________________ जिनवाणी-विशेषाङ्क (३२) समकित को मलिन करने वाले आठमद जाति, लाभ, कल, रूप, तप, बल, विद्या और अधिकार मद का क्षय हो। आशंका अथिरता वांछा, ममता दृष्टि दशा दुर्गच्छा। __ वत्सल रहित दोष पर भाखे, चित्त प्रभावना मांहि न राखे । (i) सत्य तत्त्व में संशय (ii) धर्म में अस्थिरता (iii) विषय की वांच्छा (iv) देह-भोग आदि में ममत्व (v) प्रतिकूल प्रसंग में घृणा, अरुचि (vi) गणानुरागी न होना (vii) किसी के दोष कहना और (viii) अपने और दूसरे के ज्ञान की वृद्धि न करना। देव, गुरु और धर्म तथा शास्त्र की परीक्षा न करना मूढता है। ये सब दोष समकित गुण को मलीन करने वाले हैं, इन्हें सदा त्यागें! (३३) समकित के नाश करने वाले पांच कारण सदा छोडूं। ज्ञानगर्व, मति मंदता, निष्ठुर वचन उद्गार । रुद्रभाव आलस दशा, नाश पंच प्रकार ।। (i) ज्ञान का घमंड करना (ii) तत्त्व जानने में मंद रुचि और कम प्रयत्न (iii) असत्य और निर्दय वचन बोलना (iv) क्रोधी परिणाम (v) चारित्रादि में आलस्य । समकित के नाश करने वाले इन पांच दोषों से सदा बचूँ । समकित के पांच अतिचार हैं लोक हास्य भय भोग रुचि, अग्र शोच थितिमेव। मिथ्या आगमकी भक्ति, मृषा दर्शनी सेव ॥१॥ (१) मेरी सम्यक्त्वादि प्रवृत्ति से लोग हँसेंगे, ऐसा भय रखना शंका (२) पाच इन्द्रिय के भोगों की रुचि करना (३) सद्गुण अथवा उत्तम तत्त्व की अरुचि वितिगिच्छा (४-५) मिथ्या देव, गुरु, धर्म की प्रशंसा करना अथवा सेवा करना, इन पांच दोषों को हमेशा छोडूं। (३४) पर वस्तुओं को अपनी समझकर क्रोध, मान, माया (कपट), लोभ पैदा करना अनंतानुबंधी कषाय है जिससे अनंत संसार तथा अनंत दुःख मिलता है। मिथ्यात्व मोह (खोटे में आनंद), मिश्र मोह (सत्य-असत्य दोनों में आनंद), समकित मोह (सत्य में कुछ मलिनता), इन सात प्रकृतियों को दूर करने से समकित गुण प्रकट होता है। इन सातों प्रकृति का मैं नाश करूँ और हमेशा सम्यक्त्व गुण धारण कर अनंत, अक्षय सुख पाऊँ। -संकलित समकित-आराधना इस काल में समकित धर्म का आराधन हो सकता है, परंतु यह उदय भाव नहीं है कि जिससे अपने आप प्रेरणा हो । भोगादि क्रिया उदय कर्म से होती है । बालक जन्म से ही दूध पीने लग जाता है, नवयुवक बिना शिक्षा दिये भी विषयों के प्रति उत्तेजित होता है । ये क्रियाएँ उदयजनित पूर्वसंस्कार से होती है। आत्मज्ञान, तत्त्वज्ञान, समकित-धर्म क्षयोपशम जनित गुण है। जो पुरुषार्थ करे, सद्गुरु के उपदेश या सतशास्त्र वाचन का रहस्य समझे उसे ही परम सत्य प्राप्त हो सकता है। आज अनेक जीव असदगुरु आदि में सत्यपने की बुद्धि करके वहीं रुक जाते हैं । इसका कारण सदविवेक बुद्धि का कम होना है। कई बार सत्समागम होता है तो बल वीर्य आदि की इतनी शिथिलता होती है कि चिन्तामणि रत्न के सन्मुख आने पर भी उसे नहीं ले सकते। कई जीव शुष्क ज्ञानप्रधान है तो कई जीव शुष्क क्रियाप्रधान । जहां ज्ञान और क्रिया दोनों का योग होता है वहीं सत्य की प्राप्ति होती है। -आचार्य श्री आत्मारामजी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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