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________________ सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन यह र झना कि अनंत ज्ञानादि गुण सम्पन्न मैं ही शुद्ध आत्मा हूँ, ऐसी सच्ची समझरूप सम्यक्त्व गुण प्रकट हो । (२४) द्रव्य कर्म (आठ कर्म जो आत्मा से लगे हैं), भावकर्म (राग-द्वेष-मोह) और नोकर्म (शरीरभोगादि) पुद्गल हैं, जड़ हैं, अचेतन हैं, आत्मा से बिल्कुल भिन्न पदार्थ हैं। इनमें अपनापन समझना मिथ्यात्व है। इन पर से सुख-दुःख बुद्धि नाश होकर सर्व कर्म रहित अनंत ज्ञानादि गुण सम्पन्न बनने की सच्ची श्रद्धारूप समकित गुण प्रकट हो। (२५) कर्म व कर्मफल पगल हैं, जड़ हैं, अचेतन हैं, आत्मा से भिन्न हैं। इनसे ममत्व और सुख-दुःख-बुद्धि का तथा हर्ष, शोक, राग, द्वेष आदि का नाश हो और सर्व-कर्म रहित मैं सिद्ध स्वरूप हूँ, ऐसी भावना जागृत हो। (२६) मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ अनंतज्ञानयुक्त हूँ अरूपी हँ, अन्य सब पदार्थों से भिन्न हूँ, ज्ञान, दर्शन सुख और शक्ति से परिपूर्ण हूँ, नित्य हूँ, सत् हूँ, आनंद स्वरूप हूँ ये मेरे गुण हैं। ऐसी अनुभव सहित अंतर श्रद्धारूप भावना जागृत हो। __ (२७) एक सम्यक्त्व गुण ऐसा प्रबल है कि जो मिथ्या ज्ञान, मिथ्या चारित्र आदि अनंत दोषों को एक साथ दूर करता है। समकित हुआ कि सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आदि गुण प्रकट होते हैं, इसलिये मुझे सम्यक्त्व प्राप्त हो । (२८) सम्यक्त्वी की पहचान सत्य प्रतीति अवस्था जाकी, दिन दिन रीति गहे समता की। _ छिन छिनकरे सत्य को साको, समकित नाम कहावे ताको। भावार्थ-जो आत्मा का सच्चा स्वरूप निश्चय पूर्वक जाने, समझे और हमेशा समताभाव बढ़ाता रहे, प्रतिक्षण आत्मा का अनुभव करे उसे सम्यक्त्वी कहते हैं, वही सम्यक्त्व गुण मुझमें प्रकट हो। (२९) सम्यक्त्व के व्यावहारिक पांच लक्षण हैं, वे प्रकट हों-सम (समताभाव), संवेग (धर्म-धर्मी और धर्म के फल-मोक्ष से अतिशय प्रीति और भक्ति) निर्वेद, (विषय विकार से अरुचि, त्याग में आनंद) अनुकम्पा (द्रव्य-भाव दुःख को दूर करने की सदा चिंता) और आस्था (सत्य तत्त्वों पर श्रद्धा) । (३०) सम्यक्त्व के आठ गण प्रकट होवें। करुणा, वत्सल, सुजनता, आतमनिंदा पाठ। समता, भक्ति, विरागता, धर्मराग गुण आठ॥ . भावार्थ-करुणा, मैत्री. गुणानुराग, आत्मनिंदा (अपने दोष के लिए पश्चात्ताप) समभाव, तत्त्वश्रद्धा. उदासीनता (राग, द्वेष रहित रहना) और धर्म प्रेम, ये गुण प्रकट होवें: (३१) समकित के पांच भूषण हैं चित्त प्रभावना भाव युत, हेय उपादेय वाणी। धीरज हर्ष प्रवीणता भूषण पंच बखाणी ।। __ भावाथे-(१) अपने और दूसरे के ज्ञान की वृद्धि करना (२) विवेक पूर्वक सत्य, प्रिय और हितकर बोलना (३) दुःख में धैर्य रखना और सत्य न त्यागना (४) सदा संतोषी व आनंदी रहना और (५) तत्त्व में प्रवीण बनना, ये गुण मुझ में प्रकट हों। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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