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________________ १६०.. जिनवाणी-विशेषाङ्क पुद्गल में राचे सदा, जाने यही निधान । तस लाभे लोभी रहे, बहिरातम दुःख खान ।। बहिरातम ताको कहे, लखे न आत्मस्वरूप। मग्न रहे पर द्रव्य में, मिथ्यावंत अनूप ।। . भावार्थ-जो आत्मस्वरूप को नहीं पहचानते और इंद्रियों के सुख में मग्न रहते हैं वे बहिरात्मा अर्थात् मिथ्यात्वी हैं। आत्मज्ञान, आत्मानुभव और समभाव, ये अंतरात्मा के गुण मुझमें प्रगट होवें। पुद्गल भाव रुचि नहि, ताते रहत उदास। अंतर आतम वह लह, परमातम परकाश ॥१॥ अंतर आतम जीवसो, सम्यक् दृष्टि होय। चौथे अरु पुनि बारवें, गुण थानक लो सोय ॥२॥ (१५) शरीर-मोह से शरीरधारी बन सदा जन्म-मरण करने पड़ते हैं। इससे इस शरीर-मोह का नाश हो और परमात्मस्वरूप प्रकट हो। स्थिर सदा निज रूप में, न्यारो पुद्गल खेल। ___परमातम तब जाणिये, नहिं जब भव को मेल ॥ भावार्थ-जो आत्मस्वरूप में लीन हैं, पुद्गल को हमेशां भिन्न समझते हैं, जो सर्वज्ञ वीतराग हुए हैं, जिन्हें संसार में भव करने नहीं पड़ते, ऐसा परमात्म-स्वरूप मुझमें प्रकट हो। ___(१६) मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, अरूपी हूँ, अन्य द्रव्य से ममत्व रहित हूँ, पुद्गल से सर्वथा भिन्न हूँ, ज्ञान-दर्शन से एक स्वरूप हूँ, परिपूर्ण हूँ, आनंद स्वरूप हूँ, इंद्रिय रहित, वांछा रहित, आत्मिक सुख से भरा हुआ हूँ, ये गुण मेरे में शीघ्र प्रकट हों। (१७) इन्द्रिय सुख में आनंद और दुःख में खेद बुद्धि नष्ट हो और संयम अर्थात् त्याग में अरुचि रूप मिथ्यात्व का लक्षण दूर हो। (१८) विषयेच्छा दूर होकर आत्मकल्याण की इच्छा प्रकट हो। (१९) अनेक नय, अभिप्राय, अपेक्षा आदि की समझ प्रकट हो। (२०) विषय के साधन शरीर, धन, स्त्री, पति, पुत्र, परिवार, मकान, वस्त्र, गहने और वैभव में ममता, मिथ्यात्व दूर हो और ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि आत्मा के गुणों में स्वामित्व रूप सम्यक्त्व गुण प्रकट हो । (२१) भोग, उपभोग और सांसारिक कार्यों में लीनतारूपी मिथ्यात्व का नाश हो और ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप में रुचि बढ़े। ___ (२२) मिथ्यात्वी का साध्य विषय सुख होता है, जिससे शरीर, धन, भोग प्राप्त कर वह राजी होता है। समदृष्टि का साध्य आत्मिक सुख है जिससे ज्ञानदर्शन-चारित्र-तप की प्राप्ति कर वह इसी में आनंद मानता है। परम ज्ञान सो आत्म है, निर्मल दर्शन आत्म। निश्चय चारित्र आत्म है, निश्चय तप भी आत्म॥ (२३) शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श, पुद्गल हैं, जड़ हैं, अचेतन हैं, आत्मा से बिल्कुल भिन्न पदार्थ हैं। इनमें मेरापन मानना मिथ्यात्व है। इन पर से सुख-दुःख बुद्धि हटाकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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