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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन देव, गुरु और धर्म को प्राप्त करूं । निश्चय तो मैं शुद्ध सिद्ध रूप हूँ, ऐसा स्वानुभूति रूप सम्यक्त्व निश्चय देव है। मैं शरीरादि सकल बाह्य पदार्थों से भिन्न हूँ, अनंत ज्ञानादि गुण मुझ में भरे हैं, ऐसा ज्ञान निश्चय गुरु है। भोगादि सर्व पदार्थ अपने नहीं, ऐसा समझकर उनका त्याग, राग-द्वेष-मोह रहित बन आत्मध्यान में लीन रहना, यह निश्चय चारित्र है। इन गुणों की मुझे प्राप्ति हो। आत्मा को जानना 'ज्ञान' आत्मा की श्रद्धा-अनुभूति 'दर्शन', आत्मा में रमण निश्चय 'चारित्र', इच्छा का त्याग निश्चय 'तप' है तथा इन चारों गुणों में सदा निश्चलता, अक्षीणता होना वीर्य है। ये पांच आचार मुझे प्राप्त होवें। (५) तत्त्व की अरुचि रूप मिथ्यात्व के चिह्न का नाश होकर मुझे तत्त्व पर अतिशय रुचि हो, यह सम्यक्त्व का चिह्न प्रकट होवे। (६) पर वस्तु मेरी नहीं है तो उसके नाश से मैं क्यों भय पाऊँ ? खेद देह को होता है, आत्मा अनंत वीर्यमय है सो मैं क्यों खेदित बनूं? मेरी आत्मा से भय, द्वेष एवं खेद का नाश हो। (७) शरीर और अन्य पदार्थों के लिए मैं हिंसा, विषय, कषाय (क्रोधादि) का सेवन करता हूँ। ये दोष दूर हों। मैं ज्ञान, दर्शन, चारित्र स्वरूप, अशरीरी, अरूपी हूँ। ऐसे शुद्ध आत्मस्वरूप का अनुभव रूप सम्यक्त्व गुण मुझमें प्रकट हो। (८) आत्मा से भिन्न वस्तुओं को अपनी वस्तुएँ मानने रूप मिथ्यात्व का नाश हो। अविकारी, शुद्ध ज्ञान स्वरूप आत्मा ही मेरा सत्य स्वरूप है, ऐसा दृढ़ श्रद्धा रूप सम्यक्त्व गुण प्रकट हो। (९) अनादि काल से मिथ्यात्व, मोह या भूल द्वारा भोग व इन्द्रिय सुख को अपना मानने रूप विपरीत बुद्धि अर्थात् मिथ्यात्व का नाश हो। सर्वज्ञ वीतराग प्रभु की स्व-पर-प्रकाशक जिनवाणी सुनकर अतीन्द्रिय-आत्मिक सुख का अनुभवरूप समकित गुण प्रकट हो। (१०) विषयों की इच्छा कर्मरोग की खुजली है, विकार है। इसका नाश हो। विषयेच्छा रहित आत्मिक सुख प्रकट हो। (११) पर वस्तु की अभिलाषा भी बड़ा भारी दुःख है। इसका नाश हो । पर वस्तु की इच्छा का त्याग, शांति, समभाव एवं अवांछा रूप सत्य सुख प्रकट हो। (१२) कोई भी संयोग, सुख-दुःख नहीं देते। मैं ही मोह द्वारा, राग-द्वेष की प्रवृत्ति से स्वयं सुख-दुःख उत्पन्न करता हूँ यह मेरी ही भूल है । सत्य ज्ञान प्रकट होकर मोह मिथ्यात्व का नाश हो और सम्यक्त्व गुण प्रकट हो। (१३) अपनी आत्मा के सिवाय सब पदार्थ दूसरे हैं। उन पर से मोह-ममत्व का नाश हो । आत्मा के शुद्ध गुण प्रकट करने की रुचि उत्पन्न हो। (१४) बाह्य पदार्थ, शरीर, धन, परिवार, वैभव, निंदा, प्रशंसा, सुख-दुःख में आत्मलीनता का नाश हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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