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जिनवाणी-विशेषाङ्क चेतना है, जीव है । (धवलाटीका पुस्तक, १ पृष्ठ , १९६)
यह नियम ही है कि जिसमें दर्शन गुण का अभाव होता है, उसमें ज्ञान गुण का अभाव होता ही है। अभिप्राय यह है कि दर्शन गुण ही चेतना का आधारभूत मूल गुण है। दर्शनगुण की पहली विशेषता स्वसंवेदनशीलता हे और दूसरी विशेषता निर्विकल्पता है, अर्थात् जहां संवेदनशीलता है वहीं निर्विकल्पता भी है, और जहां निर्विकल्पता है वहीं संवेदनशीलता है। इसी तथ्य को पुष्ट करते हुए जैनाचार्यों ने कहा है कि एक विचार से दूसरे विचार पर, एक ज्ञेय से दूसरे ज्ञेय पर जाते समय जहां पहला विचार समाप्त होता है और फिर दूसरा विचार उत्पन्न होता है इन दोनों विचारों के मध्य में जो निर्विचार अवस्था है वही 'दर्शन' है। अर्थात् जहां विचार, चिंतन व विकल्प नहीं होता है उस निर्विकल्प अवस्था के समय जीव का दर्शनोपयोग होता है।
जैन दर्शन में यह भी कहा गया है कि अंतर्मुहूर्त में उपयोग बदलता ही है अर्थात् दर्शनोपयोग से ज्ञानोपयोग में और ज्ञानोपयोग से दर्शनोपयोग में बदलाव आता ही है। तात्पर्य यह है कि अंतर्मुहूर्त के भीतर-भीतर प्रत्येक जीव को अनेक बार दर्शनोपयोग होता ही है अर्थात् जीव इस निर्विकल्प अवस्था का अनुभव करता ही है। इससे यह भी परिणाम निकलता है कि जीव को निर्विकल्पता (दर्शनोपयोग) की उपलब्धि अंतर्मुहूर्त में अनेक बार स्वतः सहज, अनायास ही होती है, परन्तु सामान्यतया जीव को उस निर्विकल्प अवस्था का बोध या परिचय नहीं होता है। इसका प्रथम कारण तो यह है कि सामान्य प्राणी को इस निर्विकल्प अवस्था रूप दर्शनोपयोग की अनुभूति अत्यल्प काल पलभर से भी कम काल तक होती है। अतः उसे इसका पता ही नहीं चलता। द्वितीय कारण यह है कि जैसे ही व्यक्ति इसे जानना चाहता है वैसे ही उसमें चिंतन प्रारंभ हो जाता है, विचार या विकल्प चालू हो जाते हैं, जिससे दर्शनोपयोग तिरोहित हो जाता है और ज्ञानोपयोग चालू हो जाता है। अतः दर्शनोपयोग का अनुभव उन्हीं को होता है जो अधिक काल तक निर्विकल्प अवस्था में ठहर कर स्वसंवेदन कर सकें। यह स्थिति अंतर्मुखी अवस्था में ही संभव है जैसा कि षट्खंडागम की, धवलाटीका में कहा है-'अंतर्मुख चैतन्य दर्शन है और बहिर्मुख चित्प्रकाश ज्ञान है।' (धवला पुस्तक, ७) ऐसी अंतर्मुख अवस्था की अनुभूति ध्यान के समय ही होती है। अतः जो साधक ध्यान-साधना के द्वारा अंतर्मुखी होकर कुछ समय तक निर्विकल्प रहते व स्वसंवेदन करते हैं वे ही दर्शनोपयोग व दर्शनगुण से परिचित होते हैं। स्व-संवेदन करना ही स्वरूप-संवेदन करना है, आत्मसाक्षात्कार करना है। अतः आत्म-साक्षात्कार करने वाले साधकों को ही दर्शनोपयोग व दर्शनगुण का बोध होता है, अन्य सब प्राणियों को भी दर्शनोपयोग व दर्शनगुण होता है, परन्तु उन्हें इनका बोध नहीं होता है।
दर्शन से ठीक विपरीत परिभाषा ज्ञान की है-ज्ञान सविकल्प, साकार, सविशेष, बहिर्मुख-चित्प्रकाश व चिंतन रूप होता है। यद्यपि ज्ञान और दर्शन ये दोनों गुण चेतना के हैं, परन्तु दोनों गुणों के लक्षण एक दूसरे से भिन्न हैं। इसलिए जब दर्शनोपयोग होता है तब ज्ञानोपयोग नहीं होता है और जब ज्ञानोपयोग होता है तब १. कषायपाहुड गाथा १६ से २० के अनुसार ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग का उत्कृष्ट काल एक क्षुद्रभव प्रमाण है।
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