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________________ संवाद सम्यक्त्व का स्पर्श ... विद्यानरागी श्री गौतममुनिजी म.सा. स्व. आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा. के शिष्य एवं वर्तमान आचार्यप्रवर श्री हीराचन्द्र जी म.सा. के आज्ञानुवर्ती संत विद्यानुरागी श्री गौतममुनि जी म.सा. की सन्निधि में श्री मीठालाल जी मधुर के द्वारा ज्ञान-चर्चा में भाग लेते हुए प्रस्तुत संवाद संकलित किया गया है। आशा है जिज्ञासु पाठक इस संवाद से संक्षेप में गहन ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे।-सम्पादक प्रातः लगभग ९ बजे प्रवचन प्रारम्भ हुआ। विशाल जनसमूह तन्मयतापूर्वक साधुजी के पीयूषवर्षी प्रवचन-श्रवण का लाभ ले रहा था। प्रवचन का विषय था-'सम्यक् दर्शन का महत्त्व ।' जिनवाणी के अमृतपान से सभी अपने आपको धन्य-धन्य, कृत-कृत्य अनुभव कर रहे थे। प्रवचन-समाप्ति पर स्वाध्यायी बन्धु हंसराज मुदितमन गुरु-चरणों में नमन करता हुआ अपने घर लौटा। मध्याह्न के समय में हंसराज अपने साथियों (विशाल, मनीष, चन्दन) के साथ धर्म स्थानक में प्रवेश करता है, जहां पहले से ही कुछ भाई-बहनें सामायिक में, ज्ञान-चर्चा करते हुए धर्म स्थानक की शोभा बढ़ा रहे थे और सन्त-समुदाय भी आगम-स्वाध्याय व ज्ञान-चर्चा में तन्मय था। प्रमुख सन्त प्राचीन हस्तलिखित शास्त्रों का गौर से अवलोकन कर रहे थे। हंसराज आदि उसके सभी साथी वन्दन-नमस्कार कर उनके पास आसनस्थ हो गये। सभी आगन्तुक उन धीर-वीर-सन्त प्रमुख को अपलक निहार रहे थे, ब्रह्मचर्य से दीप्तमान चेहरे पर अलौकिक अपूर्व शान्ति एवं आनन्द झलक रहा था। शम-दम-शान्त मुद्रा में बैठे सच्चे साधुत्व का सभी दर्शन कर रहे थे। इतने में ही गुरुदेव ने उनकी तरफ दृष्टि कर ‘दया पालो' कहा तथा वाणी में मिश्री घोलते हुए समूह के साथ आने का कारण पूछा। हंसराज गुरुदेव ! आज जब मैंने आप द्वारा प्रदत्त प्रवचन 'सम्यक् दर्शन का महत्त्व' विषय पर इन लोगों के बीच चर्चा की तो इन्होंने कुछ अपनी जिज्ञासाएं रखी तो मैंने परामर्श देते हुए कहा कि जब यहां गीतार्थ साधुजी विराज रहे हैं, तो क्यों नहीं वहाँ चलें जहाँ न केवल हमें सन्तोषजनक समाधान मिलेगा, बल्कि जीवन के मने ध्येय का मार्गदर्शन भी प्राप्त हो जायेगा। गुरुदेव-हंसराज! तुम्हारी भावना बहुत अच्छी है। आज के इस जमाने में जहाँ अधिकांश व्यक्ति राजनैतिक, व्यापारिक, खेल-कूद, तमाशे आदि पर विकथा कर अपने अमूल्य समय का अपव्यय कर देते हैं वहीं तुमने एक आदर्श उपस्थित कर आगमगत सच्चे श्रोता का परिचय दिया है। आगम में यह पढ़ने को मिलता है कि स्थविर भगवन्तों के प्रवचन श्रवण कर तत्त्व रसिक श्रोता चर्चा किया करते थे, जिससे धर्म प्रभावना होती थी। जिनशासन की प्रभावना को जीवंत रखने में तुम्हारा यह प्रयास अनुकरणीय है। हंसराज-भगवन् ! अभी आपको समय की अनुकूलता तो है न? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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