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________________ सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन १५१ स्पष्ट जाना जाता है । वह अनुभव-ज्ञान आत्मा का ही है। १०. आत्मा कर्म के निमित्त से राग-द्वेष, सुख-दुःख युक्त दिखाई देती है। फिर भी इन सुख-दुःख रूप रागादि भावों का स्वरूप जानने, देखने, अनुभव करने में आता है। वेदनभाव संयोगी दिखाई देता है। ११.मैं हूं ऐसे अस्तित्व का बोध प्रतिसमय रहता है ।मैं नहीं हूँ ऐसा बोध नहीं होता। १२. पनर्जन्म व पूर्वभव के संस्कार होते हैं, वे सत्य सिद्ध होते हैं। अतः शरीर से भिन्न आत्मा का अस्तित्व है। वह आत्मा नित्य है । क्रोधादि प्रकृतियां सादि में जन्म से ही देखने में आती है। १३. प्रत्येक जड़ एवं चेतन पदार्थ अपनी ही क्रिया करते हैं। शरीर आदि जड़ पदार्थ जड रूप से क्रिया करते हैं जबकि जीव चेतन पदार्थ है। वह जानने, देखने, अनुभव करने रूप चेतन क्रिया ही करता है। यदि ये क्रियायें भिन्न न हों तो दोनों एक हो जायें। इस न्याय से एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का, एक गुण दूसरे गुण का व एक पर्याय दूसरी पर्याय का कर्ता नहीं है । सभी स्वाधीन हैं, यह समझना अनुभवना और मानना सिद्धान्त है। १४. मैं कर चुका, मैं करता हूं, मैं करूंगा इत्यादि रूप जो अहं प्रत्यय होता है उससे भी आत्मा का प्रत्यक्ष होता है। शरीर अर्थात् मन, वचन, काया, इन्द्रियां, आत्मा नहीं, चूंकि मृत शरीर में अहं प्रत्यय नहीं होता । मैं हूं या नहीं, ऐसा संशय भी शरीर के किसी भी अंग में नहीं होता। ऐसा प्रत्यक्ष जानना, वेदन होना यह चेतना का ही गुण है । १५. द्रव्य उसे ही कहते हैं जिसमें उसकी गुण-पर्यायें उसी में व्यापक एवं अभिन्न रूप से रहें एकरूप रहें। द्रव्य में कोई भी गुण नष्ट नहीं होते। मात्र पर्याये पर्यायांतर होती हैं। परिणमन होना प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है। उनका अस्तित्व त्रिकाल है, नहीं तो कोई द्रव्य कायम नहीं रह सकता। १६. लोक में प्रत्येक पदार्थ का विरोधी धर्म अवश्य है। जैसे दुःख का प्रतिपक्षी सुख, लोक का अलोक, दिन का रात्रि, वैसे ही जड़ का प्रतिपक्षी चेतन अवश्य है इससे भी आत्मा के मानने की सिद्धि होती है। इससे आत्मा की स्वतंत्रता सिद्ध होती है। इसी तरह छहों द्रव्य अनादि से स्वतंत्र हैं। १७. जीव औपशमिक आदि भावों वाला है जबकि देह आदि जड़ पदार्थों में ये भाव नहीं होते। जीव के गुण विनय, सरलता, क्षमा, समता, दया, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, उपयोग अन्य किसी भी द्रव्य में नहीं पाये जाते । जीव बिना सारा जगत शून्यवत् है। सम्यग्दर्शन आत्मा का निर्मल परिणाम है अतः चौथे गुणस्थान से सिद्ध तक समान रूप से रहता है, उसका विच्छेद नहीं होता। यह सम्यक्त्व का माहात्म्य है। इससे देह में आत्मबुद्धि व आत्मा में देहबुद्धि दूर हो जाती है। ज्ञानी की शरण में समर्पित होकर उनके वचनों को सुनना उनका विचार यथातथ्य करना, उनकी प्रतीति करना व्यवहार सम्यक्त्व है और आत्मा की पहचान-प्रतीति एवं अनुभव परमार्थ समकित है। ३८२, अशोक नगर, उदयपुर (राज.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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