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________________ जिनवाणी- विशेषाङ्क १५० आत्मानुभूति, आत्मज्ञान व सम्यक्त्व है । इस प्रकार केवलज्ञान व अनुमान से आत्म प्रत्यक्ष ही भिन्न भासित हुआ । अनादि से कर्म व जीव परस्पर मिले हुए थे फिर भिन्न हुए जब मिले हुए थे तब भी अपने गुण-धर्म-लक्षणों से भिन्न ही थे, तभी पृथक हुए। इस भिन्नता का बोध, भिन्न करने की प्रक्रिया का मूल भेदज्ञान है । ४. जीव एक है । कर्मों के उदय काल में जीव में अनेक प्रकार के भाव मन्द मन्दतर, तीव- तीव्रतर होते रहते हैं । जीव एक द्रव्य है जबकि कर्म व देह अनंत परमाणु पुद्गलों का पिण्ड है । इसलिए एक द्रव्य नहीं है । इस तरह दोनों के गुण-धर्म लक्षण - परिणमन भिन्न-भिन्न ही हैं। 1 ५. अमूर्त्तिक का मूर्त्तिक से संबंध कैसे संभव है ? जैसे व्यक्त कई परमाणु पुद्गल इन्द्रियगम्य नहीं हैं, वेसे ही सूक्ष्म पुद्गल तथा व्यक्त इन्द्रियगम्य स्थूल पुद्गलों का संबंध माना जाता है । उसी प्रकार मूर्त्तिक कर्मों का अमूर्त आत्मा संबंध होना माना जाता है। फिर भी कोई किसी का कर्ता नहीं । चूंकि ये संबंध अस्थाई हैं । ६. जीव का ज्ञान-दर्शन-वीर्य स्वभाव है । वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय कर्म निमित्त से जितना व्यक्त नहीं है उतने का तो उस काल में अभाव है तथा उन कर्मों के क्षयोपशम से जितने ज्ञान-दर्शन- वीर्य प्रगट हैं, वह उस जीव के ही स्वभाव का अंश हैं, कर्म जनित औपाधिक भाव नहीं। ऐसा स्वभाव अनादि से है और इसी स्वभाव अंश के द्वारा जीवत्वपने का निश्चय किया जाता है और इस स्वभाव से नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता । क्योंकि निज-स्वभाव बन्ध का कारण नहीं होता तथा उन कर्मों के उदय से जितने ज्ञान-दर्शन-वीर्य अभावरूप हैं उनसे भी बन्ध नहीं होता । ७. मोहनीय कर्म के द्वारा जीव को अयथार्थ श्रद्धान रूप मिथ्यात्व भाव तथा क्रोधादि कषाय होते हैं । ये यद्यपि जीव के अस्तित्वमय है जीव से भिन्न नहीं हैं जीव ही उनका कर्त्ता है जीव के परिणामरूप ही वे कार्य हैं तथापि उनका होना मोहनीय कर्म के निमित्त से ही है । कर्म निमित्त दूर होने पर उनका अभाव ही होता है, इसलिये ये जीव के निज स्वभाव नहीं, औपाधिक भाव हैं तथा उन भावों द्वारा नवीन बन्ध होता है । इसलिये मोह के उदय से उत्पन्न भाव बन्ध के कारण हैं । अघाती कर्मों के उदय से देह, कुटुम्ब, परिवार, बाह्य सामग्री का संयोग होता है । इनमें शरीर, इन्द्रियां, मन आदि तो जीव के प्रदेशों से एक क्षेत्रावगाही होकर एक बंध रूप होते हैं व धन, कुटुम्ब आदि आत्मा से भिन्न रूप हैं इसलिये ये सब बन्ध के कारण नहीं हैं। इनमें आत्मा ममत्वादि करता है, ऐसे भाव ही बन्ध के कारण हैं, पर-द्रव्य बन्ध के कारण नहीं । ८. कर्म के निमित्त से होने वाली नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव गति की पौद्गलिक पर्यायों से भिन्न आत्मा त्रिकाल अनुभव में आती है । गति की पर्यायें अमुक कालवर्ती क्षणिक संयोगी हैं, नश्वर हैं, जबकि संस्कारों से अलग-अलग हैं ऐसी अनुभूति होती है । जानने, देखने, अनुभव करने वाला स्मरण में रखने वाला चेतन आत्मा भिन्न अनुभव में आता है। ९. देह इन्द्रियां, मन-वचन काय योग स्पष्ट भिन्न हैं इनका विषय वर्ण, गन्ध रस, स्पर्श, शब्द आदि हैं । ये सभी पौद्गलिक ही हैं इन सभी के विभिन्न विषयों को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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