SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दृष्टि का चिन्तन र फूलचन्द मेहता सम्यग्दर्शन है सत्यदृष्टि, तत्त्वदृष्टि यथार्थदृष्टि, शुद्ध चैतन्यदृष्टि या परमात्मदृष्टि । परम प्रतीति, परम अनुभव, परम श्रद्धा एवं अखंड प्रतीति ही सम्यग्दर्शन का मूल है। यही परमार्थ सम्यग्दर्शन है। इसे निश्चय सम्यग्दर्शन भी कहते हैं। __इस निश्चय सम्यग्दर्शन का कारणभूत व्यवहार सम्यक्त्व है, जिसमें परम वीतराग निर्ग्रन्थ सद्गुरु परमात्मा ही देव हैं, उनकी आज्ञा के परम उपासक निर्ग्रन्थ सद्गुरु भगवन्त ही सुसाधु हैं और जिन प्रणीत मोक्षमार्गरूप रत्नत्रय धर्म की आराधना ही धर्म है। संक्षेप में कहें तो वीतराग प्रणीत तत्त्वों में निःशंक श्रद्धा ही व्यवहार सम्यक्त्व है। जड व चैतन्य के गुणधर्मों व लक्षणों का यथावत् स्वरूप समझकर दोनों की भिन्नता का यथार्थ बोध हो जाना, प्रतीति हो जाना सम्यक्त्व है । यही भेदविज्ञान का सार है। भेदविज्ञान से तात्पर्य है आत्मस्वरूप को अन्य द्रव्यों से भिन्न अनुभव कर लेना। मूलतः जो अरिहंत भगवान को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानता है वही निज आत्मा को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानता है । उसी को मोह एवं भ्रान्ति मिटने पर सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन होते समय जीव को यथार्थ निर्णयात्मक बोध निश्चित होता है जिसे निम्न बिन्दुओं में रखा जा सकता है १. मैं अकेला अनादि-निधन चैतन्य आत्मा हूँ। सर्व संयोगों से रहित अनंत ज्ञान-दर्शन-चारित्र-सुख-वीर्य-उपयोग आदि से युक्त अनंत ऐश्वर्यवान जिनके सदृश परिपूर्ण आत्मा हूँ। मेरी शक्ति महान् है। २. अनादि से कर्मों का संबंध आत्मा के साथ प्रवाह रूप से है, कोई कर्म अनादि से नहीं, उनका संयोग-वियोग प्रतिसमय होता रहता है । संयोग संबंध एक क्षेत्रावगाह संबंध है तादात्म्य संबंध नहीं। आत्मा अमूर्त है उसका मूर्त कर्मों के साथ एकत्व हो रहा है। इसी एकत्व के कारण आत्मा में भी मूर्तिकपना माना जाता है। जिस प्रकार एक साथ पिघलाये हुए सुवर्ण व चांदी का एक पिण्ड बनाये जाने पर परस्पर प्रदेशों के मिलने से दोनों में एकरूपता मालूम होती है फिर भी सोना अपने पीत वर्णादि से युक्त व चांदी श्वेत वर्णादि से युक्त ही है। विशेष विक्रिया के आधार पर दोनों भिन्न किये जा सकते हैं। ऐसे ज्ञान से जीव व कर्म या देह का स्वरूप उनके गुणधर्म लक्षणों के आधार पर जाना या अनुभव किया जा सकता है । ३. कर्म की उत्पत्ति में जीव के ही अज्ञानमय रागादि भावों का योग है और कर्म के उदय में जीव रागादि भाव अनादि से करता आ रहा है। कर्म व रागादि भाव दोनों अनादि से जीव के संयोगी हैं। जैसा कि सोना-किट्टिक का, तुष-कण का, तेल-तिल का, जल-दूध का संबंध देखा जाता है। जैसे विशेष प्रक्रिया से जल को दूध से तेल को तिल से सोने को किट्टिक से अलग किया जाता है वैसे ही परम ज्ञानियों के निश्चय अनुभव से विशेष सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना द्वारा आत्मा कर्म रहित होती है। देह में रहते हुए भी देहातीत आत्मा अलग-थलग अनुभव में आती है। यही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy