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________________ ......................... १४४ जिनवाणी-विशेषाङ्क (२) प्रभावना-सम्यक्त्वी को जिनधर्म का मान-सम्मान बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए । सम्यक्त्वी का यह कर्त्तव्य है कि जिनमत में फैले हुए भ्रम का निवारण कर जिनधर्म की लौकिक व लोकोत्तर महिमा को प्रकाशित करे । जैन धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है। इसके सारे सिद्धान्त कारण-कार्य के सिद्धान्त पर आधारित है। इसके वैज्ञानिक सिद्धान्तों को जनसाधारण को समझाकर तथा उनमें श्रद्धा उत्पन्न कर जिनधर्म की प्रभावना की जा सकती है। जिनधर्म पर संकट आने पर उसे दूर करने का यथासंभव प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार इन शुभ एवं उत्साहजनक प्रवृत्तियों से सम्यग्दर्शन को सुशोभित किया जा सकता है । (३) भक्ति-गुरुजनों की भक्ति, विनय एवं वैयावृत्त्य से सम्यक्त्व निखरता है। सम्यक्त्वी को देव, गुरु व धर्म की सम्यगाराधना करनी चाहिए। जब भी गुरुदेव पधारें उनके दर्शन का लाभ लेकर उपदेशों के श्रवण को हृदयंगम करना चाहिए। उनकी आवश्यकताओं का यथासंभव ध्यान रखना चाहिए। अपने से ज्ञान, दर्शन, चारित्र में जो ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ हों उनका आदर सत्कार करना चाहिए चाहे वे उम्र म छोटे ही क्यों न हों। इस प्रकार भावपूर्ण भक्ति से सम्यक्त्व सुशोभित होता है । (४) कौशल-जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों का सांगोपांग अधिकृत ज्ञान का नाम 'कौशल' या 'जिनशासन में निपुणता' नामक भूषण है। सम्यक्त्वी को जैनागमों एवं धर्म के गूढ़ रहस्यों की जानकारी होनी चाहिए ताकि वाद-विवाद होने पर अपने धर्म की प्रतिष्ठा स्थापित कर सके। अधिकृत ज्ञान होने से स्वयं का आचरण तो सुन्दर बनता ही है साथ ही दूसरे लोगों को भी आसानी से समझाया जा सकता है। ज्ञान व क्रिया का समन्वय होने से वह दूसरे लोगों को भी धर्म में स्थिर करने में सक्षम होता है। (५) तीर्थसेवा-चतुर्विध संघ, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका की यथोचित सेवा करना भी सम्यक्त्व को दृढ़ करता है। दान-सेवा के सौरभ से स्वासित होकर सम्यक्त्व और भी देदीप्यमान बन जाता है। सम्यक्त्वी को जब भी अवसर मिले, उसे महान् आत्माओं का सान्निध्य प्राप्त कर उनकी सेवा-सुश्रूषा का ध्यान रखना चाहिए। सेवा निर्जरा का एक महान् कारण है। जैसे लोहा पारस के सम्पर्क में आते ही सोना बन जाता है वैसे ही चतुर्विध संघ की सेवा दोषों को दूर कर गणों को प्रकट करती है, अहं को गलाती है जिससे सेवक का व्यक्तित्व निखरने लगता है तथा हृदय में सरलता उत्पन्न होती है। इससे उसकी आत्मा निर्मल होती चली जाती है । अतः हमें उक्त प्रकार के भूषणों से सम्यक्त्व को मंडित कर उसे दोषों से बचाना चाहिए तभी हमारा सम्यक्त्व सुरक्षित रह सकेगा। ___-२३५१, राजा शिवदास जी का रास्ता, गणगौरी बाजार, जयपुर मिच्छत्त-कसायासंजमेहि जस्सादेसेण परिणमइ। जीवो तस्सेव खया तविवरीदे गुणे लहई ||-धवला पुस्तक ७, गाथा ७ जिस मोहनीय कर्म के उदय से जीव मिथ्यात्व, कषाय और असंयम रूप से परिणमन करता है, उसी मोहनीय के क्षय से इनके विपरीत गुणों को प्राप्त करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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