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________________ सम्यग्दर्शन सम्प्रदायवाद नहीं ___डॉ. दयानन्द भार्गव तत्त्वार्थसूत्र के साथ जैसे ही जैन-परम्परा का दार्शनिक युग प्रारंभ हुआ, सम्यग्दर्शन का महत्त्व सम्मुख आने लगा, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र का प्रारंभ ही सम्यग्दर्शन से होता है, यथा 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।' यों तत्त्वार्थसूत्र से पहले भी आचारांग में सम्यग्दर्शन की महिमा इन शब्दों में प्रकट की गई है कि सम्यग्दृष्टि कोई पाप नहीं करता 'समत्तदंसी न करेति पावं । इस प्रकार के सभी वक्तव्यों से सम्यग्दर्शन की महिमा उजागर होती है। भिन्न-भिन्न जैनाचार्यों ने सम्यग्दर्शन को भिन्न-भिन्न शब्दों में वर्णित करने का प्रयत्न किया है। उदाहरणतः तत्त्वार्थ के प्रति श्रद्धा सम्यग्दर्शन है, सद् देव, सद् गुरु तथा सच्छास्त्र के प्रति श्रद्धा सम्यग्दर्शन है, इत्यादि। इस पृष्ठभूमि में सम्यग्दर्शन को देखें तो उसके दो स्वरूप सम्मुख आते हैं-१.आध्यात्मिक और २. साम्प्रदायिक। हमारी दृष्टि यह है कि सम्यग्दर्शन के साम्प्रदायिक स्वरूप को अधिक से अधिक गौण करते हुए आध्यात्मिक स्वरूप को अधिक से अधिक मुख्यता देनी चाहिए। प्रत्येक सम्प्रदाय को अपनी कुछ न कुछ पहचान बनानी पड़ती है। सम्यग्दर्शन जैन सम्प्रदाय की पहचान है। आज से लगभग ४८ वर्ष पूर्व १२ वर्ष की बाल्यावस्था में मैंने किसी जैन ग्रन्थ में यह श्लोक पढ़ा था ज्ञानचारित्रहीनोऽपि जैन: पात्रायतेतराम । ज्ञानचारित्रयुक्तोऽपि न पुनरितरो जनः ।। श्लोक का सीधा-सादा अर्थ यह है कि जैन भले ही ज्ञान और चारित्र से हीन हो, किन्तु वह पात्र है जबकि अजैन ज्ञान और चारित्र से युक्त भी क्यों न हो, किन्तु वह पात्र नहीं है। मैं क्योंकि जैन नहीं हूँ, इसलिए इस श्लोक को पढ़कर मेरे मन में बहुत आक्रोश उत्पन्न हुआ। आज कुछ समझ की परिपक्वता के साथ इस श्लोक पर मुझे वैसा आक्रोश उत्पन्न नहीं होता। १२ वर्ष की अवस्था में जब इस श्लोक की संगति मैंने जैन विद्वानों से जाननी चाही तो उन्होंने कहा कि यहां जैन का अर्थ सम्यग्दृष्टि है। सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र निरर्थक हो जाते हैं, इसलिए इस श्लोक में सम्यग्दृष्टि को ही पात्र बताया गया है, मिथ्यादृष्टि को नहीं। श्लोक की यह व्याख्या ठीक हो सकती है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि इस श्लोक में जैन आचार्य सम्यग्दर्शन का प्रयोग साम्प्रदायिक घेराबंदी बनाने के लिए कर रहे हैं। ऊपर हमने सद् देव, सद् गुरु और सत् शास्त्र का नाम सम्यग्दर्शन के प्रसंग में लिया है। इस संदर्भ में भी एक रोचक घटना मुझे याद आ रही है। दिगम्बर सम्प्रदाय के एक साधक ने अपने ग्रन्थ के प्रारंभ में एक वस्त्रयुक्त महापुरुष का चित्र देकर उसके नीचे सद् गुरुदेव लिख दिया। इस बात को लेकर उस जैन साधक के विरुद्ध एक मुहिम खड़ी कर दी गई कि सद् गुरु तो दिगम्बर ही हो सकता है, वस्त्र सहित चित्र के नीचे 'सद्गुरु' शब्द लिखना मिथ्यादृष्टि का सूचक है। यह घटना भी * आचार्य एवं अध्यक्ष,संस्कृत-विभाग ,जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय,जोधपुर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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