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________________ १४० जिनवाणी-विशेषाङ्क अगणित सम्यक्त्वी अभी भी इस मध्यलोक में विचरण कर रहे हैं। किन्तु उन सबके नाम भी ज्ञात महीं हैं। (७) जब काललब्धि निकट आती है तब संसारी जीव को पंच लब्धि होती है। (८) जगत् में पन्द्रह पात्र-भेद हैं-१. उत्तम उत्कृष्ट पात्र (तीर्थंकर मुनि), २. उत्तम मध्यमपात्र (गणधर), ३. उत्तम जघन्यपात्र (सामान्य मनि), ४. मध्यम उत्कृष्ट (दसवीं-ग्यारहवीं प्रतिमा वाले), ५. मध्यम-मध्यम (पंचम से नवम प्रतिमा धारी) ६. मध्यम-जघन्य (प्रथम से चतुर्थ प्रतिमा वाले) ७. जघन्य-उत्कृष्ट पात्र (क्षायिक सम्यक्त्वी अवती) ८. जघन्य-मध्यम (उपशम सम्यक्त्वी अवती) ९. जघन्य-जघन्य (वेदक सम्यक्तवी) १०. उत्कृष्ट कुपात्र (सम्यक्त्व रहित मुनि) ११. मध्यम कुपात्र (सम्यक्त्व रहित देशवती) १२. जघन्य कपात्र (सम्यक्त्व रहित अव्रती) १३. उत्कृष्ट अपात्र (जिनाज्ञा रहित लिंग के धारी, परिग्रह के धारी, स्वयं को यति मानने वाले तथा अनेक वेश-स्वांग के धारी) १४. मध्यम अपात्र (गृहस्थ, कुटुम्बादिक सहित, जिनाज्ञारहित हिंसामय तपसंयम के धारक) १५. जघन्य अपात्र (जिनाज्ञा रहित गृहस्थाचार के धारी)२० । इन १५ पात्रों में सभी संसारी छद्मस्थ आ जाते हैं। इनमें से अन्तिम तीन भेद वाले जीवों के तो देशना लब्धि का भी अभाव है। १०वें, ११वें तथा १२वें क्रमांक के पात्रों के लब्धिचतुष्टय सम्भव है। कदाचित् करणलब्धि भी सम्भव है, परन्तु करणलब्धि की पूर्णता होते ही वे सुपात्रों के किसी भेद में चले जायेंगे। प्रथम नो क्रमांक तक के पात्र नियम से कभी पंच लब्धियों से परिणत हुए हैं तथा वे अन्तरात्मा हैं। जिस-जिस जीव को करणलब्धि हुई है वह कभी परमात्मा अवश्य बनेगा, अथवा बन रहा है या बन गया है (९) नित्य निगोद में एक भी जीव ऐसा नहीं है कि जिसने कभी पंच लब्धि पाई हो। हाँ, इतर निगोदों में तो ऐसे अनन्त जीव नियम से हैं२१ (जबकि इतर निगोदों से नित्य निगोद अनन्तगुणा है), यही आश्चर्य है। हमें भी लब्धिपंचक के स्वरूप परिज्ञान से इन लब्धियों की प्राप्ति हो इसी कामना के साथ लेखनी को विराम देता हूँ। संदर्भ-सूची १. संस्कृत-शब्द-कौस्तुभ, पृ. ९९ , २. तत्त्वार्थसूत्र, २/५, ३. सर्वार्थसिद्धि, २/१८ , ४. सर्वार्थसिद्धि, २/४७,५. प्रमाणपरीक्षा, पृ. ६१,६. धवला ८/८६, ७. धवल, १३/२८३ , ८. नियमसार, ता०वृ०,१५६, ९. लब्धिसार, गाथा ३ , १०. लब्धिसार, गाथा ४, ११. सुदृष्टित, पृष्ठ १५ (जैनपुस्तक भवन, कलकत्ता) १२. चर्चा-समाधान, पृ. ७, १३. लब्धिसार, ५ १४. लब्धिसार, गाथा ६, १५. लाटी संहिता ५/१९ , १६. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ७४, १७. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ८, १८. जयधवला १/२३३ नवसंस्करण तथा पृ. २५७ पुरातन संस्करण, १९. च. समा. पृष्ठ ७. २०. लब्धिसार, ७, २१. लब्धिसार १०, सर्वार्थसिद्धि ३/३८, तिलोयपण्णति १ /९४-१३०, २२. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, ६५१, २३. कसायपाहुडसुत्त, पृ. ६२१, २४. कसायपाहुडसुत्त, प्र.६२१ , २५. च.स., प.८,२६. जयधवला १२/, २३४, २७. धवला ६/२२२,२८. धवला १/१८४, २९. जयधवला ४/१००, ३०. सु.तरं. पृ. २२१-२२३ तथा ब्रह्मविलास, पृ. १११-११२ ३१. जयधवला, ४/१०० -भीण्डर, जिला-उदयपुर (राज.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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