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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन १३९ (उनमें से एक भी परिणाम अन्य समय के परिणामों से नहीं मिलता. यह भाव __ अनिवृत्तिकरण में समसमयभावी जीवों के नियम से समान परिणाम ही होते हैं तथा भिन्न समय में स्थित जीवों के भिन्न ही। कहा भी है “अपूर्वकरण” पद की अनुवृत्ति से यह सिद्ध होता है कि इस गुणस्थान में प्रथमादि समयवर्ती जीवों द्वितीयादिसमयवर्ती जीवों के साथ परिणामों की अपेक्षा भेद है।"२८ स्मरणीय है कि अपूर्वकरण के प्रथम समय से ही स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणिनिर्जरा व गुणसंक्रमण चालू हो जाते हैं। इस नियम के अनुसार प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण परिणामों का कर्ता, विशुद्ध, सादि या अनादि मिथ्यादष्टि जीव गणश्रेणिनिर्जरा (अविपाकनिर्जरा) प्रारम्भ कर देता है। वास्तव में अब वह सातिशय मिथ्यात्वी अथवा निकटभावी कालग्राही नैगमनय (भावी नैगम) की अपेक्षा सम्यक्त्वी हो गया है। अतः उसके समान परिणामी होना सम्भव नहीं है। ___ज्योंही वह तीनों करणों को कर लेता है, तदनन्तर समय में प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। यह जीव अब मोक्षमार्गी, सान्तसंसारी तथा जघन्य या मध्यम अन्तरात्मा हो जाता है। ___जो-जो सम्यक्त्वी हुए हैं, हैं तथा होंगे, हम भी उनके अनुचारी बनें यही भावना विशेष बिन्दु (१) कर्मोदय का कृश होना (क्षयोपशम), कषायों की मन्दता (विशुद्धि), उपदेशामृत का लाभ (देशना), पड़ौसी कर्मों के टिकने के काल व रस में कमी (प्रायोग्य) तथा आत्मानुभव (आत्मश्रद्धान) की समीपता का कारणभूत परिणाम (करण); ये पांच लब्धियां प्रथम सम्यक्त्व की कारण है। (२) आज तक मध्यम अनन्तानन्त जीवों ने पाँच लब्धियाँ प्राप्त करके यथा आगम संसार का अन्त कर दिया है। (३) अभी लाखों जीव पाँच लब्धियों को अपने-अपने योग्य समय में आत्मसात् करके सम्यक्त्व तथा चारित्र धारण कर वर्तमान में केवली पद पर आरूढ़ हैं। (४) अनन्त जीव ऐसे हैं जिन्होंने पाँच लब्धियों को आत्मसात् तो किया, पर समकित रत्न पाकर पुनरपि अब वे अनन्त जीव अनात्मज्ञानियों के साथ रुल रहे हैं, अर्थात् लब्धिरूप परिणाम अब उनके पास नहीं है, पहले हुए थे। ऐसे अनन्त जीव अभी संसार में है। इस कथन से यह शिक्षा मिलती है कि सम्यक्त्व प्राप्त कर उसकी सुरक्षा तथा चारित्र के क्षेत्र में वृद्धि करनी चाहिए। कहा भी है-'सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दिढ़ चारित लीजे।' (५) पंचम लब्धिसम्पन्न जीव अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण, इन परिणामों के समय संवर व निर्जरा तत्त्वमय होता है तथा भाविनैगम से सम्यक्त्वी होता है। (६) इन देशनादि लब्धियों को प्राप्त कर पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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