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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन रोगादि की खान है, इसमें क्या ग्लानि करना, ऐसा सोचना निर्विचिकित्सा है।. यह अंग दया व करुणा को उत्पन्न करता है, विषय-कषायों से अरुचि कराकर रत्नत्रय में प्रीति कराता है 1 १२९ ४. अमूढदृष्टि - अन्य दर्शनी को विद्या - बुद्धि और धन-सम्पत्ति में बढ़ा-चढ़ा देखकर भी विचलित नहीं होना, उस पर नहीं ललचाना और अपनी श्रद्धा को दृढ़ रखना अमूढदृष्टि कहलाता है । अथवा तत्त्वों में सुदेवादि में अन्यथा प्रतीति रूप मोह का अभाव अर्थात् जड़-चैतन्य का, सत्य-असत्य का, बन्ध-मोक्ष का सुदेवादि- कुदेवादि का मार्ग समझने में किञ्चिद् भी मूढ़ न रहना, उनका तथारूप श्रद्धान करना अमूढदृष्टि है । यह अंग मूढता को हटाकर सही श्रद्धान करवाता है । ५. उपवृहंण - गुणवानों के गुण की प्रशंसा करना, उनके गुणों में वृद्धि करना और स्वयं भी उन गुणों को प्राप्त करने में प्रयत्नशील रहना उपबृंहण कहलाता है । अथवा जिनधर्म का उद्योत करना, जिनमार्ग ही मोक्षमार्ग है, निर्मल है, निर्दोष है उसकी कहीं निंदा हो तो उसके कारणों को दूर कर उनका यथावत् निराकरण कर शुद्ध धर्म का स्वरूप समझाना उपबृंहण है । रत्नत्रय धर्म अनादि-अनन्त है, कल्याण स्वरूप है, अबाधित है, शाश्वत है, निर्मल है इस प्रकार यह सब मानना उपबृंहण है । अज्ञानी द्वारा धर्म की निन्दा हो तो उसे दूर करना आदि भी उपबृंहण है । ६. स्थिरीकरण—–स्वयं कहीं धर्म से शिथिल हो जाये, कोई भूल प्रमादवश हो जाये तो पुनः अपने शुद्ध स्वभाव में स्थित होना, तथा किसी भी सम्यग्दृष्टि या संयमी को (प्रबल कषाय के उदय से, कुसंग से, प्रमाद से, विस्मृति से शिथिलता से रोगादि की तीव्र वेदना से, गरीबी आदि कारणों से मिथ्यात्वियों के मंत्र, तन्त्रादि चमत्कार से सच्ची श्रद्धा व संयम से गिरता हुआ जाने तो उसे ) धर्मोपदेश द्वारा श्रद्धा व चारित्र में पुनः स्थिर करना स्थिरीकरण कहलाता है 1 ७. वात्सल्य - साधर्मियों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करना, उनके दुःखों को मिटाने का यथाशक्य प्रयत्न करना, शुद्ध चैतन्य को पाने हेतु शुद्ध रत्नत्रय धर्म की महिमा सुनकर, समझकर अत्यन्त प्रीतिवान् होना, ज्ञानी पुरुषों के जीवन चरित्र के प्रति अत्यन्त बहुमान व प्रीति रखना, अति हर्ष आना तथा किसी के प्रति वैर-विरोध का भाव नहीं करना वात्सल्य कहलाता है । ८. प्रभावना - सच्चे देव - गुरु-- धर्म तथा जिन प्रणीत तत्त्वों का, षट् द्रव्यों का, मोक्ष मार्ग का तथा जिनवाणी का महत्त्व प्रकट करना, प्रचार-प्रसार करना, जिज्ञासु रुचिशील मुमुक्षु जीवों को सत्संग में मोक्षमार्ग की महिमा बताकर जिनधर्म की प्रभावना करना, संसारमार्ग, कुमार्ग या कुदेवादि से छुड़ाकर विषय- कषायों को हिंसा, झूठ आदि पापों को, जन्म-जरा-मृत्यु आदि दुःखों का कारण बताकर वीतराग धर्म में संलग्न करना तथा आत्म-कल्याणकारी आगम-शास्त्र व सत्साहित्य उपलब्ध कराना प्रभावना कहलाता इससे दूसरे लोग भी धर्म के सम्मुख होकर आत्म-कल्याण कर सकते हैं । I इन आठों अंगों का स्वरूप समझकर इन्हें अपने जीवन में स्थान देना चाहिए । - प्राचार्य, श्री महावीर जैन स्वा. विद्यापीठ, भीकमचन्द जैन नगर, पिंप्राला रोड़ जलगांव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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