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सम्यग्दर्शन के आठ अंग
द्र प्रकाशचन्द जैन सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का उल्लेख या वर्णन उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २८ गाथा ३१ में, आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध के पांचवे अध्ययन के ५वें उद्देशक में तथा भगवतीसूत्र के प्रथम शतक के तृतीय उद्देशक में मिलता है। ये सभी आठों अंग सम्यक्त्व की साधना करने वाले साधक में कमल के फूल की पंखुड़ियों के समान एक साथ विकसित होते हैं तथा सम्यक्त्व की प्राप्ति पर सभी अंग एक साथ पूर्ण हो जाते हैं।
१. निःशंकित-श्री जिनेश्वर भगवान् के वचनों में, उनके द्वारा प्रणीत तत्त्वां में, सच्चे देव-गुरु-धर्म के स्वरूप में किञ्चिद् भी अश्रद्धा नहीं होना निःशंकित कहलाता है। ‘तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं' अर्थात् वही सत्य और निःशंक है, जो जिनेन्द्रदेव ने प्ररूपित किया है। 'निग्गंथे पावयणे अटे अयं परमटे सेसे अणटे ।' (भगवतीसूत्र २.५) निर्ग्रन्थ प्रवचन ही एक मात्र अर्थ रूप है, परमार्थ रूप है, बाकी सब अनर्थ रूप है, ऐसा दृढ़ श्रद्धान होना निःशंकित होना है। इसमें निर्भयता उत्पन्न होती है तथा प्राणीमात्र के प्रति आत्मवत्भाव होता है। जीव इससे सातों भयों से रहित होता है।
२. नि:काक्षित–परदर्शन की इच्छा या आकांक्षा नहीं करना । जिनधर्म में दृढ़ रहना और यह विश्वास रखना कि
कुप्पवयणपासंडी, सव्वे उम्मग्गपट्ठिया।
सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे ।।-उत्तरा.२३.६३ अर्थात् जो कुप्रवचन को मानने वाले पाखण्डी लोग हैं वे सभी उन्मार्ग में प्रवृत्ति करने वाले हैं। जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित मार्ग ही सन्मार्ग है, इसलिए यह मार्ग ही उत्तम है। अथवा परद्रव्यों में राग रूप वाञ्छा का अभाव होना भी निःकाक्षित कहा जाता है। इसके अनुसार पंचेन्द्रिय-विषयों से उत्पन्न सुख में सुख की मान्यता रहित श्रद्धान होता है, इन्द्रियसुख सुख नहीं सूखाभास है, ऐसी मान्यता उत्पन्न होती है। इसमें साधक शरीर को कैदखाना समझता है।
३. निर्विचिकित्सा संयम और तप के फल के विषय में शंकाशील नहीं होना निर्विचिकित्सा है। जो भी क्रिया की जाती है उसका फल अवश्य मिलता है। वर्तमान में जो सुख-दुःख दिखाई देता है, वह पूर्वोपार्जित कर्मों का फल है। इस समय जो साधना की जा रही है उसका फल अवश्य मिलेगा, यह विचार करना निर्विचिकित्सा है। अथवा परद्रव्यों में द्वेषरूप ग्लानि का अभाव निर्विचिकित्सा है । अर्थात् यह देह अशुचिमय है फिर भी इसमें रहकर आत्मा रत्नत्रय प्रकट कर सकता है, अत: देह से द्वेष रूप ग्लानि क्यों की जाय।
अथवा व्रतधारियों के मलिन वस्त्र या मैलयुक्त शरीर को देखकर जुगुप्सा नहीं होना, उनकी रत्नत्रय साधना में प्रीति होना, देह जड़ है, सड़न, गलन, विध्वंसन रूप है, * प्राचार्य,महावीर स्वाध्याय विद्यापीठ,जलगाँव
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