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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन
१२७ दशविध रुचियां इस प्रकार से बताई हैं
निसर्गरुचि-गुरु आदि के उपदेश के बिना स्वभाव से अथवा जातिस्मरण ज्ञान के योग से जो सम्यक्त्व के प्रति रुचि जागृत होती है उसे निसर्गरुचि कहते हैं। उपदेश रुचि-अरिहंत वीतराग भगवान तथा गरु आदि के उपदेश से उत्पन्न होने वाली श्रद्धा उपदेश रुचि है। आज्ञारुचि-तीर्थंकर भगवान या निर्ग्रन्थ मुनियों की आज्ञाराधन से उत्पन्न सम्यक्त्व रुचि को आज्ञा रुचि कहा गया है। सूत्र रुचि- आचारांग आदि सूत्रों के अध्ययन से उत्पन्न श्रद्धा सूत्ररुचि है। बीज रुचि-जल में तैल-बिन्दु की तरह थोड़ा सीखने पर भी बहत परिणत होकर जो सम्यक्त्व रुचि हो, वह बीज रुचि है। क्रियारुचि विशिष्ट प्रकार की धार्मिक क्रिया करते हुए सम्यक्त्व के प्रति रुचि क्रिया-रुचि कहलाती है। अभिगम रुचि- अंग, उपांग आदि सूत्रों के अध्ययन से उत्पम्म सम्यक्त्व रुचि को अभिगम रुचि कहते हैं। विस्तार रुचि- नवतत्त्व, छह द्रव्य, नय-निक्षेप आदि के विस्तृत ज्ञान से उत्पन्न होने वाली रूचि विस्तार रुचि है। संक्षेप रुचि- आगमादि के विद्वान् न होने पर भी स्वल्प ज्ञान से जो तत्त्व श्रद्धा जागृत हो वह संक्षेप रुचि है। धर्मरुचि- श्रुत-चारित्र धर्म का सुचारु आराधन करते-करते सम्यक्त्व के प्रति रुचि प्रकट होने को धर्म रुचि कहा गया है।
इस प्रकार वीतराग सर्वज्ञ सर्वदर्शी आत्माओं के वचनों पर उनके द्वारा निरूपित तत्त्वों पर श्रद्धा होना सम्यक् दर्शन है। 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्' श्रद्धावान ही ज्ञान प्राप्त करता है। 'संशयात्मा विनश्यति' संशयवान् नष्ट हो जाता है। 'यो यद्श्रद्धः स एव सः' जो जिसमें श्रद्धा रखता है वैसा ही वह स्वयं बन जाता है। रागद्वेषादि विकारों के विजेता वीतराग आत्माओं, सर्वज्ञों, सर्वदर्शी आत्माओं के वचन पूर्णरूपेण श्रद्धेय हैं, उन पर श्रद्धा रखकर उनका अध्ययन करने और सम्यक् चारित्र का पालन करने से आत्मा शुद्ध, बुद्ध और मुक्त अवस्था प्राप्त करती है। परन्तु यह स्मरणीय है कि सम्यक्ज्ञानादि रत्नत्रय का आधार सम्यग्दर्शन ही है।
-३५, अहिंसापुरी, उदयपुर सम्यक्त्वी के अबन्ध कोई पूछे सम्यक्त्वी जो भोग भोगता है क्या उसे बंध नहीं होता? इसका उत्तर कहते हैं कि बन्ध यों तो दशम गुणस्थान तक बतलाया है पर मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय जो सम्यक्त्व के प्रतिपक्षी हैं उनका अभाव होने से अनंतसंसार की अपेक्षा से यह अबंध ही है । सम्यग्दृष्टि का ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। वह पदार्थों के स्वरूप को यथावत् जानने लग जाता है । “सब पदार्थ अपने स्वरूप में परिणमन कर रहे हैं। कोई पदार्थ किसी पदार्थ के अधीन नहीं है इसका उसे दृढ़ श्रद्धान हो जाता है । इसलिए वह किसी पदार्थ से रागद्वेषादि नहीं करता। उसकी दृष्टि बाह्य पदार्थ में जाती अवश्य है, पर रत नहीं होती । यद्यपि औदयिक भावों का होना दुर्निवार है ; परन्तु जब उनके होते अन्तरंग की स्निग्धता की सहायता न मिले तब तक वह निर्विष सर्प के समान स्वकार्य करने में असमर्थ है, ऐसे अनुपम एवं अलौकिक या स्वात्मिक सुखका उसे अनायास ही अनुभव होने लगता है। यही कारण है कि सम्यक्त्वी बाह्य में मिथ्यादृष्टि जैसा प्रवर्तन करता हुआ भी श्रद्धा में राग-द्वेषादि के स्वामित्व का अभाव होने से उसके अबंध है, और वही मिथ्यादृष्टि राग-द्वेषादि के स्वामित्व के सद्भाव से निरन्तर बंध करता ही रहता है। श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी
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