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जिनवाणी-विशेषाङ्क का क्षय, मिथ्यात्व मोहनीय एवं मिश्रमोहनीय का उपशम तथा सम्यक्त्व मोहनीय का वेदन । (२) पांच (अनन्तानुबधी एवं मिथ्यात्वमोहनीय) का क्षय, मिश्र मोहनीय का उपशम एवं सम्यक्त्व मोहनीय का वेदन ।
क्षायिक एवं उपशम वेदक सम्यक्त्व की स्थिति जघन्य-उत्कृष्ट एक समय ही मानी गई है । क्षयोपशम वेदक सम्यक्त्व की स्थिति क्षयोपशम समकित के अनुसार होती है। क्षायिक सम्यक्त्व-अनंतानुबंधी क्रोधादि ७ प्रकृतियों का पूर्ण क्षय होने पर आत्मिक परिणामों की पूर्ण विशुद्धता अथवा निर्मलता क्षायिक सम्यक्त्व है। यह सम्यक्त्व उत्पन्न होने के बाद फिर नष्ट नहीं होता। जैसे सभी प्रकार के मल से रहित होकर जल पूर्ण विशुद्ध हो जाता है, वैसे ही आत्मा की. सर्वोत्कृष्ट विशुद्ध दशा क्षायिक सम्यक्त्व है। __ अन्यं दृष्टिकोण से भी सम्यक्त्व के ३ भेद और किए गए हैं। वे हैं-कारक, रोचक और दीपक। कारक सम्यक्त्व-इस सम्यक्त्व की प्राप्ति करके जीव सम्यक् चारित्र के प्रति विशेष रुचिशील बनता है। स्वयं चारित्र-पालन के साथ दूसरों से भी चारित्र पालन. करवाता
है।
रोचक सम्यक्त्व इस समकित के होने पर जीव में चारित्र-पालन के प्रति रुचि तो रहती है, किन्तु चारित्रमोहनीय के उदय के कारण चारित्र पालना नहीं कर सकता। फिर भी ऐसे जीव में संसार के स्वरूप का ज्ञान, मुक्ति की इच्छा या चाहना होती है। यह स्थिति चारित्र मोहनीय के उदय के प्रभाव से होती है। दीपक सम्यक्त्व इसके प्रभाव से जीव अपने उपदेश से दूसरे जीवों में सम्यक् रुचि जागृत कर सकता है। जैसे दीपक अन्यों को प्रकाश प्रदान कर सम्यक् मार्ग दिखाता है उसी प्रकार यह दीपक-सम्यक्त्व अन्यों का पथ प्रशस्त करता है। परन्तु जीव में स्वयं में सम्यक्त्व ज्योति नहीं जगती है।
एक अन्य प्रकार से भी सम्यक्त्व के भेद भी किए गए हैं, जैसे-द्रव्य सम्यक्त्व एवं भाव सम्यक्त्व, निश्चय सम्यक्त्व एवं व्यवहार सम्यक्त्व, निसर्गज एवं अधिगमज सम्यक्त्वं ।
- द्रव्य एवं भाव सम्यक्त्व-मिथ्यात्व के पुद्गल जब विशुद्ध रूप से परिणत हो जाते हैं तब वे पुद्गल द्रव्य सम्यक्त्व कहलाते हैं और उनसे होने वाला जीव का सम्यक् श्रद्धा रूप विशिष्ट परिणाम भाव सम्यक्त्व कहलाता है। निश्चय सम्यक्त्व एवं व्यवहार सम्यक्त्व-जिस सम्यक्त्व में देव, आत्मा, ज्ञान, गुरु और धर्म को उपयोग में माना जाता है तथा जब राग-द्वेष मंद हो जाता है, जीव आत्मिक गुणों में रमण करता है, पर पदार्थों से आत्मीय भाव मिट जाता है, देह में रहते देहातीत की स्थिति बन जाती है तब निश्चय सम्यक्त्व होता है । अरिहंत को देव, पंच महाव्रतधारी निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी को गुरु और जिनेश्वरदेव प्ररूपित धर्म को धर्म मानने रूप दृढ़ श्रद्धा को व्यवहार सम्यक्त्व कहा गया है।
सम्यक्त्व के प्रति रुचि-उत्पादन की दृष्टि से उत्तराध्ययनसूत्र के २८वें अध्ययन में
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