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________________ सम्यक्त्व - प्राप्ति की प्रक्रिया वीतरागता और सम्यक्त्व प्रत्येक प्राणी ऐसे जीवन की आवश्यकता का अनुभव करता है, जिस जीवन में सदैव के लिए शान्ति, आनन्द, अमरत्व एवं वीतरागता की प्राप्ति हो। इनकी प्राप्ति के लिए चिन्तनशील व्यक्तियों का अपना-अपना चिन्तन है । यह अलग बात है कि उनका चिन्तन सत्य है या असत्य । अखण्ड शांति, आनन्द, अमरत्व एवं वीतरागता प्राप्त करने के लिए चरम तीर्थङ्कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है xx प्रेमचन्द कोठारी णाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । एस मग्गोत्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं । उत्तरा २८.२ अर्थात् संसार के समस्त पदार्थों को भलीभांति देखने वाले सर्वज्ञ - सर्वदर्शी जिनेन्द्र देवों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप मोक्ष का मार्ग फरमाया है । यह मार्ग अमरत्व, वीतरागता रूप लक्ष्य को प्राप्त कराने में सक्षम है । अव्याबाध सुख प्राप्ति के लिए उपर्युक्त चारों उपायों में प्रथम उपाय सम्यक् - ज्ञान है । है आगमकारों ने लोक को धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय इन षड् द्रव्य रूप बताया है । षट् द्रव्यों को जड़ व चेतन अथवा जीव व अजीव इन दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । प्रथम पाँच द्रव्य जड़ या अजीव हैं, छठा द्रव्य चेतन या जीव है । जीव किन कारणों से संसार में भटकता है ? किस तरह संसार से पार होता है ? इत्यादि का ज्ञान तथा जीवाजीव की सामान्य व विशेष जानकारी वीतराग प्रभु के कथनानुसार होना सम्यक् ज्ञान कहलाता है । सम्यक् ज्ञान पर पूर्ण एवं अटल विश्वास करना सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व कहलाता है I सम्यक्त्व - लक्षण सम्यक्त्व का लक्षण समझाते हुए पूर्वाचार्यों ने बताया है१. यथार्थतत्त्वश्रद्धा सम्यक्त्वम् । (जैन सिद्धान्तदीपिका ५/३) | * Jain Education International अर्थात् जीवादि तत्त्वों की यथार्थ श्रद्धा करना सम्यक्त्व है । २. हेयाहेयं च तहा, जो जाणइ सो हु सम्मद्दिट्ठी । (सूत्र पाहुड, ५) अर्थात् जो हेय और उपादेय को तथारूप जानता है, वही वास्तव में सम्यग्दृष्टि ३. या देवे देवताबुद्धि गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मध: शुद्धा, सम्यक् श्रद्धानमुच्यते ।। (योगशास्त्र २/२) अर्थात् वीतराग देव में देवबुद्धि का होना, सद्गुरु में गुरु- बुद्धि का होना और शुद्ध धर्म में धर्म- बुद्धि का होना सम्यक् दर्शन कहलाता है । सम्यक्त्व का प्रतिपक्षी: मिथ्यात्व सम्यक्त्व का प्रतिपक्षी मिथ्यात्व है। जहां मिथ्यात्व नहीं है, वहां प्राय: सम्यक्त्व * प्रमुख धर्म- शिक्षक एवं साधनानिष्ठ स्वाध्यायी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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