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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन अर्थों में श्रद्धान' से भी उसका भेद/व्यवच्छेद (ध्यान में आ जाता) है।१७। किन्तु पूज्यपाद और अकलंक मानते हैं कि 'तत्त्व' शब्द निकाल देने से 'धन, प्रयोजन, (शब्द का) अभिधेय' ऐसे किसी भी 'अर्थ' या फिर (मिथ्यावादी) वैशेषिक शास्त्रोक्त द्रव्य, गुण, कर्म आदि किसी भी पदार्थ में श्रद्धान को 'सम्यक् दर्शन' संज्ञा प्राप्त हो जाती।१८ इसी प्रकार 'अर्थ' शब्द निकाल देने में सम्यग्दर्शन की व्याख्या रह जाती'तत्त्वश्रद्धानम्' और फिर भावमात्र (के श्रद्धान) में वह प्रसक्त हो जाती, क्योंकि कुछ लोगों का कहना है कि 'तत्त्वं भावः सामान्यम्', जैसे कि वैशेषिकों के (कल्पित) सामान्य पदार्थ सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व आदि। या फिर 'तत् त्वम् असि, पुरुष एवेदं सर्वम्' इत्यादि वेदान्ती-कल्पना के अनुसार 'सर्वेक्य' में श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन मानना पड़ता। लेकिन वैसा कुछ भी जैन मत को इष्ट नहीं हैं। ___ इसी संदर्भ में आ. अकलंक (वार्तिक २६-२८ में) एक और मतका उल्लेख एवं खंडन भी करते हैं, यथा 'इच्छा-श्रद्धानमित्यपरे (वर्णयन्ति) तदप्ययुक्तम् मिथ्यादृष्टेरपि प्रसङ्गात्। केवलिनि सम्यक्त्वाभावप्रसङ्गाच्च ।' 'कुछ वौदी इच्छापूर्वक श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं, लेकिन वह ठीक नहीं, क्योंकि फिर वह संज्ञा स्वयं को बहुश्रुत कहलाने या खंडन की इच्छा से अर्हनत्त्वों का झूठमूठ श्रद्धान करने पर मिथ्यादृष्टियों को भी प्राप्त हो जाएगी। दूसरी ओर, इच्छा लोभ की पर्याय होने से लोभमुक्त केवली को कभी सम्यग्दर्शन युक्त नहीं कहा जा सकेगा। ___ अन्त में सम्यग्दर्शन को 'मोक्षोपयोगिता' पर ही प्रश्नचिह्न लगाने वाले एक पूर्वपक्षी के मत की चर्चा हम अनिवार्य मानते हैं। तत्त्वार्थसूत्र १.१ पर वार्तिक ४७-६ में आ. अकलंक ने यह चर्चा प्रस्तुत की है। एक विरोधी कहता है, ‘त.सू. ८.१ में यद्यपि बन्ध के ५ कारण बताए हैं, फिर भी बाद के चारों का कारण सीधा या परंपरांसे अन्ततः 'मिथ्याज्ञान' (= अज्ञान) को ही माना गया है। अतः मोक्ष का उपाय भी (अन्य दर्शना की तरह) तत्त्वों के यथार्थ ज्ञान को ही मानना चाहिए था, उसके आगे पीछे सम्यग्दर्शन तथा सम्यक् चारित्र को जोड़ने की क्या आवश्यकता थी? उत्तर में अकलंक एक समीचीन उदाहरण देते हैं: ‘किसी रसायनविशेष (की गुणकारिता) का मात्र ज्ञान हो, तो इतने भर से वह किसी का रोग दूर नहीं कर सकता, उस रसायन की सक्ति पर सच्चा भरोसा रखें एवं उसका उपयुक्त ढंग से विनियोग करें, तभी उससे आरोग्य लाभ होता है। ठीक वैसे ही, संसार-व्याधि की निवृत्ति यानी मोक्षप्राप्ति भी तत्त्वश्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा (सामायिकाचरणादि रूप) सम्यक्चारित्र, इन • तीनों के अविनाभाव संबंध या मेल से ही हो सकती है। तत्पश्चात् दो श्लोकों द्वारा अन्य दृष्टान्त देकर समझाया है कि (दावानल से दग्ध वन में) सब कुछ देखते हुए भी लंगड्य (भागकर) अपनी जान नहीं बचा सकता, और अंधा दौड़-भाग की क्रिया खूब करने के बावजूद (सही दिशा न सूझने से) जल जाता है, पर अगर दोनों मिलकर परस्पर सहयोग करें तो दोनों की जान बच सकती हैं। रथ भी एक चक्र से नहीं चल सकता, चार पहिये (दिशा एवं गति में) परस्पर सहयोग करें, तभी वह वेग से चलेगा। ठीक वैसा ही सहभाग सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का मोक्षोपाय के रूप में अति आवश्यक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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