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जिनवाणी-विशेषाङ्क संदर्भ १.देखिए,सर्वार्थसिद्धि (वाराणसी,७१),प्रस्तावना,पृ.१९-२० २. उदाहरणार्थ श्रवणबेलगोला के शिलालेखों में तथा अन्यत्र भी जैसे तत्त्वार्थसूत्र (बम्बई) की अंग्रेजी प्रस्तावना में श्री हीरालाल र.कापड़िया ३. सम्मिलित रूप में इसलिए कि “मार्ग इति चैकवचननिर्देशः समस्तस्य मार्गभावज्ञापनार्थः। तेन व्यस्तस्य (सम्यग्दर्शनादेः) मार्गत्वनिवृत्तिः कृता भवति” सर्वार्थसिद्धि ,पृ.७ ४. यह भाष्यांश पुनः लिखने का कारण यह है कि सिद्धसेनगणि की टीका (पृ.३०) में भावः दर्शनमिति' एक स्वतंत्र वाक्य मानकर, अर्थ किया है कि ल्युट के करण, अधिकरण,उपादान आदि गौण अर्थों की बजाय मुख्य अथे'भाव' ही यहां अभिप्रेत है।' ५. चर्चा की रुख यों सहजतया तत्त्वार्थसूत्र की ओर फिर मुड़ गई,यह अच्छी बात है फिर भी,अतींद्रिय अथवा एन्द्रियक तत्वों की स्वयं को हुई दृढ प्रतीति किसी अन्य में संक्रामित करने का प्रयत्नु और इस हेतु किया हुआ तर्क प्रतिष्ठित व्यवस्थित शाब्दिक प्रतिपादन,यह भी दर्शन शब्द का एक और (चौथा) अर्थ है और इसी अर्थ में वैदिक विचार परंपराओं को आस्तिक दर्शन तथा वेद बाह्य तात्त्विक परंपराओं को नास्तिक दर्शन कहते हैं। जाहिर है,समग्र जैन दर्शन को लागू होने वाला वह अर्थ यहां तत्त्वार्थ सूत्र १-३ में) तदुक्त मोक्षोपाय के एक अंग में लागू नहीं है। ६.द्रष्टव्य,अकलंक राजवार्तिक (पृ.१९.१३) अलोकश्चेन्द्रियानिन्द्रियार्थप्राप्तिः। ७. वही (पृ १९.२७-८) स तु श्रद्धानशब्दवाच्योऽर्थ करणादिव्यपदेशभाग् आत्मपरिणामो वेदितव्यः। कस्य? आत्मन इत्येवमादि । (पृ.१९.३२) ८. तन्त्र- मोक्षकारणत्वेन स्वपरिणामस्य विवक्षितत्वात्। औपशमिकादिसम्यग्दर्शनम् आत्मपरिणामत्वात्.. विवक्ष्यते, न च सम्यक्त्वकर्मपर्यायः, पौद्गलिकत्वेऽस्य परपर्यायत्वात् ।-राज वार्तिक पृ.२० (वा.१० त.सू.१.२ पर) ९. वही (त. सू १.२ पर वा. ११) स्यादेतत्-स्वपरनिमित्त-उत्पादो दृष्टो यथा घटस्योत्पादो मृनिमित्तो दण्डादिनिमित्तश्च, तथा सम्यग्दर्शनोत्पाद आत्मनिमित्तः सम्यकत्वपुगलनिमित्तश्च, तस्मात्तस्यापि मोक्षकारणत्वमुपपद्यते इति । १०.वही (वा.११-१२) तन्न; किं कारणम् ? उपकरणमात्रं हि बाह्यसाधनम् । किञ्च यदिदं दर्शनमोहाख्यं कर्म तदात्मगुणघाति, कुतश्चिदात्मपरिणामादेवोपक्षीणशक्तिकं सम्यक्त्वाख्यां लभते ।- आत्मैव स्वशक्त्या दर्शनपर्यायेणोत्पद्यते११.वही : वार्तिक १३-१४ १२. इन दोनों स्थानों पर भगवद्गीता का यह कथन मननीय है: श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। १३.द्रष्टव्य यहां तत्त्वार्थसूत्र,१.१ पर राजवार्तिक ६९-७२,(पृ.१७) १४. द्रष्टव्य, वही (तत्त्वार्थसूत्र १.१ पर राजवार्तिक ३१, पृ.९) एवं सर्वार्थसिद्धि (१९५५, पृ.७.२-३ : तत्त्वार्थसूत्र १.१ पर ही) १५. तत्त्वार्थसूत्र १३ पर श्वेताम्बर के श्री सिद्धसेनगणि का मत हम 'सम्यक्' शब्द की चर्चा के समय देख चुके हैं (यद्यपि उनकी चर्चा का रुख भिन्न है, फिर भी शब्दों का अर्थघटन समान है। १६.यहां तत्त्वार्थसूत्र १.२ पर राजवार्तिक (पृ.२२,वार्तिक २९-३०) भी द्रष्टव्य हैं। १७. अर्थग्रहणतोऽनर्थश्रद्धानं विनिवारितम् । कल्पितार्थव्यवच्छेदोऽर्थस्य तत्त्वविशेषणात् । -तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक,द्वितीय खंड,पृ.५ गाथा ३ १८. अर्थश्रद्धानमिति चेत्सर्वार्थप्रसङ्गः सर्वार्थसिद्धि (त.सू.१.२ पर), पृ. ९८; साथ ही त. सू. १-२ पर राजवा. १८-१९ तत्त्वग्रहणादृते मिथ्यावादिप्रणीतेषु सर्वार्थेषु श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं प्राप्नोति । अर्थ इति द्रव्यगुणकर्मसु (वैशे. ७.२.३) इति वचनात् ।१९. तत्त्वार्थसूत्र,१.२ पर सर्वार्थसिद्धि (पृ.९८ से १०.१ तक) और तदुपरि राजवार्तिक २२-२५ (पृ.२१)
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-संस्कृत विभाग, डेकन कालेज, पूना
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