SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन ११५ दर्शन शब्द का अर्थ 'आलोक' है, जिससे (ज्ञान का बोध तो हो सकता है पर) श्रद्धान रूप अर्थ का बोध नहीं हो सकता।" उत्तर में पूज्यपाद ने बताया है कि “धातुओं का अर्थ" न तो कोई एक होता है, न अतिसीमित, उलटे वह तो) अनेक (अर्थच्छटाओं वाला) होता है; अतः दर्शन का अर्थ श्रद्धान मानने में कोई दोष नहीं है । परन्तु विरोधी फिर भी आपत्ति उठाता है, कि विशेष अनिवार्य कारण के बिना किसी धात्/शब्द के प्रसिद्ध अर्थ को छोड़ देना उपयुक्त नहीं होता। यहां ऐसा कौन-सा कारण है ? उत्तर-क्योंकि यहां (तत्त्वार्थसूत्र, १.१ में) प्रकरण मोक्ष मार्ग का है, और वहां चक्षु आदि के निमित्त से होने वाला 'रूपी' द्रव्यों का क्षायोपशमिकज्ञान रूप आलोक, जो साधारण रूप से सभी संसारी जीवों में पाया जाता है, यह मोक्ष के उपाय का एक अंग बन नहीं सकता। तद्विपरीत, 'भव्य' जीवों (में से भी 'आसन्नभव्य' जीवों) में पाया जाने वाला जीव आदि अरूपी तत्त्वों का श्रद्धान बनने वाला आत्मपरिणाम मोक्षोपाय बन सकता है । सम्यग्दर्शन को 'तत्त्वार्थश्रद्धान, तथा 'आत्म-परिणाम' मानने के विरुद्ध एक शंका (एकदेशी जैनों के भी) मनमें उठ सकती है, जिसे अभिव्यक्ति देकर उसका समाधान तत्त्वार्थसूत्र, १.२ पर रचित वार्तिक ९-१६ में आ. अकलंक ने दिया है। शंका कुछ इस प्रकार की है, “आगे ‘निर्देशस्वामित्व...' आदि सूत्र में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों में से सम्यक्त्वमोह नामक एक प्रकृति का निर्देश हुआ है। अतः यहाँ भी उसी का निर्देश मानकर सम्यग्दर्शन से 'सम्यक्त्व कर्म पुद्गल रूप अर्थ ग्रहण करना प्राप्त है।' इस पर अकलंक की प्रतिक्रिया नकारात्मक है क्योंकि 'सम्यक्त्वप्रकृति तो उन पुद्गलों की पर्याय है जो आत्मा के लिए पराये हैं, जबकि यहां, मोक्ष के कारणों के रूप में आत्मा के अपने परिणामों की विवक्षा है, जैसे कि औपशमिकादि सम्यग्दर्शन वास्तव में हैं। यहां अगर कोई कहे कि 'घट आदि कार्यों की उत्पत्ति में उपादान कारण रूप मिट्टी जैसे निमित्त बनती है, वैसे ही, दंडरूप पर-पदार्थ भी बनते हैं, तो उस पर आचार्य का उत्तर है—'(हां, परन्तु) वे दण्ड आदि पर-पदार्थ घटोत्पति में साधारण उपकरण-मात्र बनते हैं, बाह्य साधन रूप। वस्तुतः तो मिट्टी ही उसका मुख्य कारण (सिद्ध) होती है। उसी तरह आत्मा के मोक्षरूप कार्य/फल की उत्पत्ति का कारण भूत माना हुआ सम्यग्दर्शन भी आत्मा का अंतरंग परिणाम ही होना चाहिए, न कि सम्यक्त्व-कर्मपुद्गल जो वास्तव में दर्शनमोह नामक आत्मगुणों के घातक कर्म के ही, (किसी आत्मपरिणामवशात्), क्षीणशक्ति (यानी रसघात होने पर स्वल्पघाती) बने हुए रूप का (नया/स्वतंत्र) नाम है ।१० फिर, सम्यक्त्व-प्रकृति कर्मपुद्गल के बिना भी क्षायिक सम्यग्दर्शन का उदय होता है, यानी कि वह बाह्य सम्यक्त्व 'हेय' है। तथा वह अप्रधान भी है, क्योंकि आत्मीय सम्यग्दर्शन रूप परिणाम के रहते ही वह उपकारक सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त आगे अकलंक और भी तर्क देते हैं, सम्यग्दर्शनमात्मपरिणामं श्रेयोऽभिमुखमध्यवस्यामः।' आत्म-परिणाम रूप सम्यग्दर्शन (यानी तत्त्वार्थश्रद्धान) को ही हम (मोक्षरूप) कल्याण के प्रति अभिमुख (उपायों का अंगभूत) मानते हैं।' इस निर्णय से पूज्यपाद के (पृ. ५-६ पर के) विधान को भी पुष्टि मिलती है जिसमें कहा गया है कि 'भावानां याथात्म्यप्रतिपत्तिविषयश्रद्धानसंग्रहार्थं दर्शनस्य 'सम्यग्' विशेषणम्।' परंतु इस विधान का हिंदी अनुवाद (काशी १९५५ वाले संस्करण में) इस प्रकार किया गया है, ‘पदार्थों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy