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________________ ११६ जिनवाणी- विशेषाङ्क के यथार्थ ज्ञानमूलक श्रद्धान का संग्रह करने के लिए 'सम्यक्' विशेषण जोड़ा है । संभवत: तत्वार्थसूत्र १.३ में वर्णित अधिगमज सम्यग्दर्शन को ध्यान में रखकर यह कहा गया हो। (द्रष्टव्य, ऊपर 'समञ्चते:' की चर्चा ) परन्तु इस संदर्भ में एक प्रश्न मन में उठ सकता है 'अगर सम्यग्दर्शन का अर्थ 'ज्ञान- मूलक श्रद्धान' ऐसा ही अपेक्षित था, तो फिर तत्त्वार्थसूत्रकार ने सम्यग्दर्शन को त.सू. १.१ में सम्यग्ज्ञान के पश्चात् ही क्यों नहीं रखा? वैसे भी अपेक्षाकृत कम वर्णों से बने होने के आधार पर भी, समास में ज्ञान का स्थान दर्शन के पहले ही अपेक्षित था । " यही शंका पूर्वपक्ष के रूप में सर्वार्थसिद्धि में दी गई है 'ज्ञानग्रहणमादौ न्याय्यं, दर्शनस्य तत्पूर्वकत्वात् अल्पाच्तरत्वाच्च पर पूज्यपाद ने इस पर अपना मत दिया है · कि ' यह कथन उपयुक्त नहीं है, क्योंकि ज्ञान के पश्चात् नहीं, अपितु साथ-साथ ही श्रद्धान उत्पन्न होता है । जिस समय दर्शनमोह कर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होकर शीघ्र ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, उसी समय ज्ञानावरणीय कर्मका उपशमादि होने से मत्यज्ञान तथा श्रुताज्ञान की निवृत्तिपूर्वक सम्यग्ज्ञान भी होता है । जैसे मेघपटल के दूर हो जाने पर सूर्य का प्रताप और प्रकाश दोनों एक साथ ही व्यक्त होते हैं । " ( सर्वार्थसिद्धि, पृ. ६.७-८ तथा ७.१ - २) यही बात दूसरे शब्दों में राजवार्तिक (पृ. ९) में भी कही गई है । परंतु ... हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सूर्य का प्रताप (यानी गर्मी) उसके प्रकाश के साथ अविनाभाव से जुड़ा हुआ है और एक ही कारण 'मेघपटल' से दोनों का अवरोध तथा उस अकेले के दूर हटने से दोनों का प्रकट होना संभव है । किन्तु जैन मत में सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान का अवरोधक कहीं भी एक नहीं माना गया। स्वयं पूज्यपाद ने भी एक के उदय के लिए दर्शनमोह - कर्म का उपशमादि कारण माना है, तो दूसरे के लिए मति-अज्ञान एवं श्रुताज्ञान की निवृत्ति । अतः सूर्य के प्रकाश-प्रताप का उदाहरण न ही यहां ठीक बैठता है, न सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की समकालीन उत्पत्ति सिद्ध कर सकता है । फिर, तत्त्वार्थसूत्र भाष्य १.१ (पृ. २५.२१-२२) का निम्नलिखित विधान भी तो इसके विरुद्ध जाता हुआ प्रतीत होता है: 'एषां च (सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां ) पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम् । उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभ: । ' इसी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए सिद्धसेन की टीका में (पृ.२८.९ पर) कहा गया है 'पूर्व निर्दिष्ट सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर बाद में गिनाए गए सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र प्राप्त हो भी सकते हैं, नहीं भी हो सकते (यही अर्थ है भजनीय का) (अतः उनके लिए विशेष प्रयत्न अपेक्षित होते हैं) १२ परंतु सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र प्राप्त हो जाने का मतलब है कि सम्यग्दर्शन (तत्पूर्व) निश्चित रूप से प्राप्त हो चुका होता है ।' इन प्रतिपादनों से स्पष्ट अनुमान निकाला जा सकता है कि कम से कम श्वेताम्बर संप्रदाय के अनुसार तो सम्यग्ज्ञान के पूर्व सम्यग्दर्शन का प्राप्त / उत्पन्न हो जाना ही तत्त्वार्थसूत्रकार को अभिप्रेत था । इससे यह भी जाहिर है कि ऐसे में वे सम्यग्दर्शन को ज्ञानमूलक श्रद्धान भी नहीं मानते होंगे, अपितु सम्यग्दर्शन ( श्रद्धान) को सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में सहायक मानते होंगे। परन्तु फिर तत्त्वार्थसूत्र १.३ में प्रतिपादित अधिगमज' सम्यग्दर्शन का क्या तात्पर्य होगा ? १२ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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