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________________ १०८ जिनवाणी- विशेषाङ्क आने से परिणामों में कुछ विशुद्धि प्रकट होती है । जिससे देह तथा भोगों के प्रति तीव्र आसक्ति व कषायों में उग्रता कम हो जाती है । इस लब्धि के प्राप्त हो जाने से जीव के परिणाम कुछ इस प्रकार के होते हैं- 'मेरे जीवन का अंत तो सुनिश्चित है, फिर मैं कहां जाऊंगा ? इस जन्म-मरण के चक्र का अंत कैसे हो ? इस लोक में तो अनंतानंत जीव हैं, उनमें संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव अत्यल्प हैं । उनमें भी मनुष्य कितने हैं ? मनुष्यों में भी दश बोल - (१. मनुष्य २. आर्य क्षेत्र, ३. उत्तम कुल, ४. पूर्ण इन्द्रिय ५. लम्बी आयुष्य ६. नीरोगता ७. संत समागम ८. शास्त्र - श्रवण ९. सम्यग् श्रद्धा व १०. संयम में पराक्रम) प्राप्त जैन कितने हैं ? फिर उनमें भी अपने ज्ञान व पुरुषार्थ को तत्त्वार्थ (मोक्ष) हेतु लगाने वाले जीव कितने हैं? मैं किस भूमिका पर हूँ ? पुण्योदय से सब कुछ मिला । अतः अब समयं व्यर्थ न खोकर के धर्म के यथार्थ स्वरूप को जानकर उसकी पालना करना उचित है, जिससे इच्छित फल प्राप्त कर सकूँ। जब अंतर में ऐसे प्रशस्त भाव पैदा हों तो उसे 'विशुद्धि लब्धि' समझना चाहिए । ३. देशना लब्धि- 'देशना' अर्थात् मोक्षप्राप्ति का उपदेश । किसी विशिष्ट ज्ञानी से जीव को सम्यक्त्व पोषक गूढ़ तत्त्व ज्ञान रूप देशना गंभीरता से सुनने की आन्तरिक रुचि जागृत होती है । वह सत्संग के माध्यम से द्रव्यों और तत्त्वों का ज्ञाता होता है। ऐसी भूमिका उपलब्धि हेतु देशना उपदेशक सर्वोत्कृष्ट - अरिहन्त, मध्यम—आचार्य, उपाध्याय, मुनि एवं जघन्य - आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष होते हैं । यह देशनालब्धि पांच प्रकार की होती है- १. श्रवण २. ग्रहण ३. धारण ४. निर्धारण व ५. परिणमन । अतः मात्र देशना श्रवण करने का नाम ही देशना लब्धि नहीं है। वरन् चिंतनपूर्वक श्रवण के बाद उसका सम्यग्ग्रहण, धारण आदि हो, उसे देशना लब्धि कहते हैं । इस भूमिका पर जीव कर्मों की शिलाखण्ड रूप दीर्घ स्थिति को कम कर लोढ़ी (बट्टी) वत् अल्प कर लेता है 1 1 ४. प्रायोग्य लब्ध- जब जीव देशना लब्धि से अपने ज्ञायक स्वरूप को समझ लेता है, तो उसमें पर ज्ञेयों का आकर्षण छूट जाता है । वह समभाव व संतोषवृत्ति का धारक हो जाता है । किन्तु अनन्तानुबंधी कषाय अंतर में बनी रहती है । गहन चिंतन से उसका उपयोग पर से हटकर, आत्मा के सन्मुख उत्तरोत्तर सूक्ष्म होने लगता है। आत्मा के ऐसे प्रशस्त बने भावों की भूमिका को प्रायोग्य लब्धि कहते हैं । इस भूमिका पर वह व्यावहारिक व्रत - प्रत्याख्यान, तप-त्याग करके कर्मों के तीव्ररस को मंद करता है, और पूर्व में रहे लोढी कर्मों को भी पचेटेवत् लघु कर लेता है । वह आयु कर्म को छोड़ शेष सातों कर्मों की स्थिति को अन्त: कोटाकोटि सागर प्रमाण सीमित कर लेता है । ५. करण लब्धि - आत्मा के सम्यक्त्व ग्रहण के अनुकूल विशेष प्रशस्त परिणामों को करण लब्धि कहते हैं। इसे प्राप्त करने के बाद ही जीव सम्यक्त्वी बनता है 1 इसकी पूर्ण उपलब्धि के लिए चारों गतियों में से किसी गति का जीव हो, किन्तु www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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