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________________ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन .........१०७ ___'सम्यग्दर्शन' की प्राप्ति के लिए चारों गतियों में मनुष्य गति सर्वाधिक अनुकूल है। किन्तु मनुष्य भव की प्राप्ति को भी दुर्लभ बताया गया है। अव्यवहार राशि से निकलने के अनन्तर जीव को सामान्यतः नवघाटियां पार करने के पश्चात् संज्ञी पंचेन्द्रियपना प्राप्त होता है। नव घाटियां हैं-पंच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और एक असंज्ञी पंचेन्द्रियपना। फिर संज्ञी पंचेन्द्रिय में भी तिर्यंच, नारक व देव में अनेक जन्म-मरण करते हुए अनंत पुण्योदय से कभी मनुष्य का भव मिलता है। इस प्रकार से एक मनुष्य भव के पीछे असंख्य नारकी भव, एक-एक नारकी भव के पीछे असंख्य देव-भव और एक-एक देव भव के पीछे अनंत-अनन्त तिर्यंचभव लगे हुए हैं। इससे मनुष्य भव की दर्लभता पर चिंतन किया जा सकता है। ‘सम्यग्दर्शन' की प्राप्ति इस मनुष्य भव की प्राप्ति से भी अति दुर्लभ है। अनादिकाल से अव्यवहार राशि में रहे अनंतानंत एकान्त मिथ्यात्वी जीवों में से समय-समय पर कुछ जीव, व्यवहार राशि के कुछ जीवों के सिद्ध होने पर उसी परिमाण में अकाम निर्जरा के प्रभाव से अव्यवहार राशि से निकल कर व्यवहार राशि में आते हैं और क्रम से पांच लब्धियों को प्राप्त करने पर ही महा दुर्लभ 'सम्यक्त्वरत्न' को प्राप्त कर पाते हैं। सम्यक्त्व की प्राप्ति में इन लब्धियों का विशेष महत्त्व होने से इनका संक्षिप्त स्वरूप यहां पर दिया जा रहा है। पाँच लब्धियाँ ___ 'लब्धि' शब्द का अर्थ प्राप्ति है। जो सम्यक्त्व उपलब्ध होने के योग्य सामग्री की प्राप्ति करावे, वे पांच लब्धियां इस प्रकार हैं१. क्षयोपशम लब्धि-कर्मों का वह क्षयोपशम जिसके होने पर तत्त्व विचार हो सके, उसे 'क्षयोपशम लब्धि' कहते हैं। अनादि काल से जीव मिथ्यात्व वश संसार में भ्रमण करता रहता है। मिथ्यात्वदशा में ही जीव भटकते-भटकते कभी विशेष अकाम निर्जरा और शुभ संयोगों से अध्यवसायों में प्रशस्तता आने से ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों की अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग को प्रति समय अनंत-अनंत गुणा न्यून करता-करता क्रम से विकास को प्राप्त हो, ऊपर आता है। सामान्यतः वह एकेन्द्रिय से उपर्युक्त नव घाटियां पार करते हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय अवस्था को प्राप्त करता है। तब वह जीव सम्यक्त्व-विरोधी घनीभूत कर्मों को पर्वत से चट्टानों की तरह विदीर्ण कर पृथक् करता है। जीव के अकाम पुरुषार्थ व शुभ अध्यवसायों से प्राप्त ऐसी प्रशस्त दशा को 'क्षयोपशम लब्धि' कहते हैं। अव्यवहार राशि व निगोद से निकलने में इस लब्धि के परिणामों की मुख्यता रहती है। इस भूमिका पर जीव को सम्यक्त्व प्राप्त करने योग्य अनुकूल आवश्यक सामग्री-पंचेन्द्रिय संज्ञीपना आदि प्राप्त हो जाते हैं। ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षयोपशम भी जीव कर लेता है। वैसे समझने योग्य सामान्यबोध ज्ञान का क्षयोपशम तो प्रत्येक संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव को होता है। किन्तु जो जीव अपने उस ज्ञान का उपयोग तत्त्व (आत्मा) के निर्णय व उत्थान करने में लगावे, उन्हें ही यह क्षयोपशम लब्धि होती है। २. विशुद्धि लब्धि जीव को अनंत भव-भ्रमण कराने वाले कर्मों में मन्दता व न्यूमता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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