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सम्यग्दर्शन की दुर्लभता
___जशकरण डागा डागाजी ने अपने इस लेख में सम्यग्दर्शन की दुर्लभता पर प्रकाश डालने के साथ क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य एवं करणलब्धि का भी विवेचन किया है।-सम्पादक
दुर्लभ सम्यग्दर्शन
लभंति विउला भोए, लभंति सुरसंपया।
लभंति पुत्त-मित्तं च, एगो धम्मो न लब्भई ।। ___ 'इस आत्मा ने चक्रवर्तियों के जैसे विपुल भोग व देवेन्द्रों जैसी विपुल सम्पत्ति भी अनेक बार प्राप्त की। पुत्र, मित्र आदि भी अनेक बार मिले, किन्तु एक दुर्लभ धर्म (सम्यग्दर्शन) की प्राप्ति नहीं हुई ।' कलिकाल-सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य ने कहा है कि इस दुषमकाल में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति केवलज्ञान के समान दुर्लभ है।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम जीव के विकास क्रम को समझना आवश्यक है जो संक्षेप में यहां दिया जा रहा है।
१. अव्यवहार राशि (जहां से जीव का विकास आरंभ होता है) २. व्यवहार राशि (३) कृष्ण पाक्षिक (४) भव्यत्व (स्वयं मोक्षगमन की योग्यता) (५) चरमावृत्त प्रवेश (इसमें आने पर महापाप के प्रति उदासीनता व पापप्रवृत्तियों में भी कुछ मंदता भा जाती है। इस भूमिका पर एक पुद्गल परावर्तन काल संसार-भ्रमण शेष रहता है । (६) द्विबंधक-कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ४० कोटाकोटि की दो बार से अधिक नहीं बांधता है। (७) सकृत् बंधक-उत्कृष्ट स्थिति के कर्म एक बार से अधिक नहीं बांधता है। (८) अपूर्व बंधक (९) मार्गपतित-मार्ग के निकट आना। (१०) मार्गाभिमुख (११) मार्गानुसारी जीवन (१२) मंद मिथ्यात्वी (१३) अर्धचरमावृत्त प्रवेश (१४) शुक्ल पाक्षिक-यह कृष्ण (काले) कृत्यों के प्रति गहरा आकर्षण न रहने पर होता है तथा अर्धपुद्गल परावर्तन काल संसार-भ्रमण शेष रहता है। (१५) यथा-प्रवृत्तिकरण-इसे कोई जीव चरमावृत्त प्रवेश से पूर्व भी कर लेते हैं-अभव्यजीववत् । (१६) अपूर्वकरण (१७) अनिवृत्तिकरण (१८) उपशम सम्यक्त्वी (१९) परिमित संसारी (२०) सास्वादानी (२१) मिश्र दृष्टि (२२) सुलभ बोधि (२३) क्षयोपशम या क्षायिक सम्यक्त्वी (२४) आराधक (२५) देश विरति (२६) सर्व विरति (२७) चरम शरीरी।
उपर्युक्त विकास क्रम को विशेष गति देने के मुख्य तीन उपाय कहे गए हैं१. चतुःशरण गमन (अरहंत, सिद्ध, साधु व धर्म)। २. दुष्कृत गर्हा-कृत पापों की निंदा करना।
३. सुकृत अनुमोदन-पुण्यात्माओं द्वारा किए गए सुकृत अनुष्ठानों की प्रशंसा करना। जैसे पंच परमेष्ठी भगवंतों के सुकृतों की अनुमोदना करना। * प्रमुख स्वाध्यायी एवं आगम-अध्येता
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