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________________ १०५ सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन ज्ञानार्णव में विशुद्ध सम्यग्दर्शन को मोक्ष का मुख्य अंग बतलाया है मन्ये मुक्तः स पुण्यात्मा विशुद्धं यस्य दर्शनम्। यतस्तदेव मुक्त्यङ्गमग्रिमं परिकीर्तितम् ।।-ज्ञानार्णव, ६.५७ __जिस प्रकार भाग्यशाली मनुष्य कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि रत्न और रसायन को प्राप्त कर मनोवांछित लौकिक सुखो को प्राप्त करता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से भव्य जीवों को सर्वोत्कृष्ट सुख प्राप्त होता है (रयणसार, १६४)। भगवती आराधना (७३५) में भी इसे सर्व दुःखों का हरण करने वाला कहा है-'मा कासि तं पमादं सम्मत्ते सव्वदुःखणासयरे ।' मोक्षपाहुड में इसे अष्टकर्म क्षयकर्ता कहा है सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ सो साहू। सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठाट्ठकम्माइं-मोक्षपाहुड ४ . इस तरह सम्यग्दर्शन की जैन आगमों में बहुत प्रशंसा की गई है। यह प्रशंसा वास्तविक है, क्योंकि इसके बिना मोक्षद्वार ही नहीं खुलता। यदि जीव सम्यक्त्व से युक्त है तो वह ज्ञान चेतना को प्राप्त कर लेता है। इसलिए कहा सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य भूमिका में यदि कर्मचेतना या कर्मफलचेतना में है तो भी वास्तव में वह ज्ञानचेतना वाला है अस्ति तस्यापि सदृष्टेः कस्यचित्कर्मचेतना। अपि कर्मफले सा स्यादर्थतो ज्ञानचेतना ।। -पंचाध्यायी, २.२७५ सम्यग्दर्शन की कई श्रेणिया हैं, जैसे-सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन, औपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिकसम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्दर्शन आदि। इन श्रेणियों के क्रम से सम्यग्दर्शन का महत्त्व निरन्तर बढ़ता जाता है। व्यवहार सम्यग्दर्शन से निश्चय सम्यग्दर्शन की ओर बढ़ा जाता है क्योंकि उनमें साध्य-साधक भाव है। जैसा कि द्रव्यसंग्रह की टीका (४१) में कहा है-'व्यवहारसम्यक्त्वेन निश्चयसम्यक्त्वं साध्यत इति साध्यसाधकभावज्ञापनार्थमिति ।' सम्यग्दर्शन का महत्त्व न केवल जैनदर्शन में स्वीकृत है अपित् बौद्ध, वेदान्त आदि सभी दर्शनों में इसको मूल आधार के रूप में स्वीकार किया गया है। सम्यग्दर्शन वह रत्न है जिसके बिना सब रत्नाभास हैं और जहाँ सम्यग्दर्शनरूप पारसमणि है वहां लोहरूप ज्ञान और चारित्र भी स्वर्णवत् सम्यक् हो जाते हैं। यही सम्यग्दर्शन का महत्त्व है। -१, सी.एस. कॉलोनी, बी.एच.यू. वाराणसी चक्खुदो मग्गदो लोए; सरमाभयबोधिदो । जीवो जो य भव्वाणं, सो जिणो देववंदिओ ।। जिनेन्द्र देव ही इस संसार में भव्य जीवों के लिए निर्मल (अन्त: चक्षु प्रदान करते हैं, वे ही सच्चे मार्गदर्शक है। वे ही शरण में आए हुए जीवों को निर्भय बनाते है| और बोधि प्रदान करते हैं। वे ही जीवों को संयम रूप जीवन दान देते हैं। अत: वे जिनेन्द्र देव देवों द्वारा पूज्य है। -आचार्य श्री घासीलालजी म.सा.| Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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