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________________ १०४ जिनवाणी- विशेषाङ्क स धर्मः सम्यग्दृग्ज्ञप्तिचारित्रत्रितयात्मकः । तत्र सद्दर्शनं मूलं हेतुरद्वैतमेतयोः । - पंचाध्यायी, २.७१६ ततः सागाररूपो वा धर्मोऽनगार एव वा । सदृक्पुरस्सरो धर्मो न धर्मस्तद्विना क्वचित् ॥ - वही, २.७१७ सम्यग्दृष्टि जीव सदा ही अपनी आत्मा में एकत्व का अनुभव करता है । वह उस आत्मा को सब कर्मों से भिन्न शुद्ध और चिन्मय मानता है। वह शरीर, सुख, दुःख, पुत्र, पौत्र आदि को अनित्य मानता है । वे कर्म के कार्य हैं ऐसा मानकर उन्हें आत्मा का स्वरूप नहीं मानता (पंचाध्यायी, २.५१२-५१३) । अतः वह भयरहित होता हुआ आत्मलीन रहता है। ऐसे उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि जीव को सिद्धों के समान शुद्ध स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है, ऐसा कवि राजमल्ल ने स्पष्ट स्वीकार किया है अस्ति चात्मपरिच्छेदि ज्ञानं सम्यग्दृगात्मनः । स्वसंवेदनप्रत्यक्षं शुद्धं सिद्धास्पदोपमम् ॥ - पंचाध्यायी, २.४८९ इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि सम्यक्त्व के साथ ज्ञान, वैराग्य एवं चारित्र अवश्यम्भावी हैं । यह अवश्य है कि जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता जाता है वैसे-वैसे सम्यग्दर्शन भी दृढ़तम होता जाता है । जहाँ सच्चा सम्यक्त्व है और सच्चा ज्ञान भी है वहाँ सदाचार तो बिना प्रयत्न के आ जाता है । इसीलिए केवलज्ञान के समय यथाख्यात चारित्र ही माना गया है। जो व्यक्ति मुहूर्तकाल पर्यन्त भी सम्यग्दर्शन प्राप्त करके उसे छोड़ देते हैं वे इस संसार में अनंतानंतकाल तक नहीं रहते लद्दूणय सम्मत्तं मुहुत्तकालमवि जे परिवडंति । सिमणंताणताण भवदि संसारवासद्धा ॥ - भगवती आराधना, ५३ जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन से पतित नहीं होते वे अधिक से अधिक १५ ( सात + आठ) भव धारण करते हैं- 'अप्रतिपतित- सम्यग्दर्शनानां परीतविषयः सप्ताष्टानि भवग्रहणानि उत्कर्षेण वर्तन्ते, जघन्येन द्वित्रीणि अनुबन्ध्योच्छिद्यन्ते ।' राजवार्तिक ४.२५ । यदि दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय हो गया है तो या तो उसी भव में या तीसरे चौथे भव में नियम से मोक्ष प्राप्त होता है- 'दसंणमोहे खविदे सिज्झदि तत्थेव तदियतुरियभवे ।' क्षपणसार, १६५ । इसी महत्त्व के कारण रत्नकरण्ड श्रावकाचार (३४, २८) में कहा है- 'तीनों कालों और तीनों जगत् में जीवों का सम्यक्त्व के समान कल्याणकारी अन्य कुछ भी नहीं है | गणधरादि देव सम्यग्दर्शन सहित चाण्डाल को भी भस्म से ढकी हुई चिनगारी के समान 'देव' कहते हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा (३२५, ३२६ ) में कहा है 'सम्यग्दर्शन सब रत्नों में महारत्न है, सब योगों में उत्तम योग है, सब ऋद्धियों में महाऋद्धि है तथा स सिद्धियों को प्रदान करने वाला है । सम्यक्त्व से जीव इन्द्र, चक्रवर्ती आदि से भी अधिक वन्दनीय होता है । व्रतरहित होता हुआ भी नाना प्रकार के उत्तम स्वर्गसुखों को प्राप्त करता है । 'सागारधर्मामृत' में तो यहाँ तक कहा है कि मिथ्यात्वग्रस्त चित्तवाला मनुष्य पशु के समान है तथा सम्यक्त्वयुक्त पशु मनुष्य के समान है नरत्वेऽपि पशूयन्ते मिध्यात्वग्रस्तचेतसः । पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्तचेतसः । - सागारधर्मामृत, १.४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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