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________________ सम्यग्दर्शन : संपादकीय सम्यक्त्व प्राप्त होने पर १५ या १६ भवों में मुक्ति निश्चित होती है । अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल में तो मुक्ति निश्चित ही है। सम्यक्त्व का एक प्रकार है क्षायोपशमिक । इस सम्यक्त्व में अनन्तानुबन्धी चतुष्क का तो क्षय हो जाता है, किन्तु सम्यक्त्वमोहनीय का वेदन रहता है। यह सम्यक्त्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट ६६ सागरोपम से अधिक काल तक रहता है। सम्यग्दर्शन होने पर जीवन का लक्ष्य स्पष्ट हो जाता है तथा जीवन दृष्टि में ऐसा परिवर्तन घटित होता है, जो जीवन की दिशा ही बदल देता है। जीवन में फिर शम, संवेग, निर्वेद. अनकम्पा एवं आस्तिक्य का स्वतः समावेश हो जाता हैं। जैनदर्शन में अनेकान्तवाद एवं अनेकान्तदृष्टि की भी चर्चा की जाती है। अनेकान्तदृष्टि में विभिन्न नय सम्मिलित रहते हैं जो सम्यग्ज्ञान को प्रकट करते हैं। नयसापेक्ष दृष्टि में सम्यग्दृष्टि ही मूल में सन्निहित है। तभी ज्ञान की उत्पत्ति में भी परस्पर टकराव उत्पन्न नहीं होता। इस प्रकार जैनों का अनेकान्तवाद उनकी सम्यग्दृष्टि का ही परिचायक है। प्रस्तुत विशेषाङ्क में सम्यग्दर्शन पर विस्तार से विचार हुआ है। पूज्य संतों , विद्वान् मनीषियों एवं चिन्तनशील लेखकों ने इस विशेषाङ को उपयोगी बनाने में जो अपनी प्रज्ञा एवं लेखनी का योगदान किया है उसके लिए जितना आभार माना जाय उतना कम है। यह विशेषाङ्क विषय-वैविध्य के कारण तीन खण्डो में विभक्त है । प्रथम खण्ड शास्त्रीय-विवेचन से सम्बद्ध है। इसमें सम्यग्दर्शन के स्वरूप, लक्षण, प्रकार, भेद, अंग, महत्त्व, दुर्लभता, प्राप्ति-प्रक्रिया, मिथ्यात्व, उसके प्रकार आदि से सम्बन्धित लेख तो हैं ही, किन्तु सम्यग्दर्शन से सम्बन्धित विभिन्न प्रश्नोत्तर भी निहित हैं, जो 'जिज्ञासा और समाधान', 'सम्यक्त्व-प्रश्नोत्तर' तथा 'सम्यक्त्व का स्पर्श' (संवाद) शीर्षकों से प्रकाशित हैं। इस खण्ड में 'जैन वाङ्मय में सम्यग्दर्शन', तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा में सम्यग्दर्शन का स्वरूप', 'कुन्दकुन्दाचार्य प्रतिपादित सम्यग्दर्शन का स्वरूप' 'श्रीमद् राजचन्द्र की दृष्टि में सम्यग्दर्शन' आदि ऐसे विशिष्ट लेख भी हैं जो जैन दर्शन में प्रतिपादित सम्यग्दर्शन को व्यापक फलक एवं दृष्टिकोण प्रदान करते हैं। आगम में प्रतिपादित सम्यग्दर्शन की उत्तरकाल में किस प्रकार व्याख्याएं होती रहीं इसका भी बोध प्रस्तुत-खण्ड के लेखों से होता है। इस खण्ड में सम्यग्दर्शन का निश्चय पक्ष भी प्रस्तुत हुआ है तो व्यवहार पक्ष भी प्रतिष्ठित हुआ है। निश्चय एवं व्यवहार का समन्वय भी दृग्गोचर होता है। पूज्य आचार्यों एवं संतों के लेख जहां आगमिक सैद्धान्तिक एवं पारम्परिक पक्ष को पुष्ट करते हैं, वहां नया सोच भी मुखर हुआ है। आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. , आचार्य श्री हीराचन्द्र जी म.सा. , आचार्य श्री जवाहरलाल जी म.सा. , आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म.सा., आचार्य श्री रामचन्द्र सूरि जी म.सा., पं. श्री समर्थमलजी म.सा. के प्रवचन एवं लेख जहां इस विशेषाङ्क की शोभा बढा रहे हैं वहां पं. सुखलाल संघवी, डॉ. सागरमल जैन, डॉ. रामजी सिंह, डॉ. दयानन्द भार्गव आदि विद्वज्जनों के वैचारिक लेख पाठकों का मार्गदर्शन करते हैं। डॉ. यशोधरा वाधवानी, डॉ. सुषमा सिंघवी, श्री रमेशमुनि शास्त्री आदि के शोधपरक लेख विद्वत्पाठकों का ध्यान आकर्षित करते हैं। सम्यग्दर्शन का दर्शनगुण, दर्शनोपयोग, दर्शनमोह आदि से क्या भेद है इसका सूक्ष्म विचार किया है श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा ने । उन्होंने अपने लेख में दश प्रकार के मिथ्यात्व, सम्यग्दर्शन के आठ अंग आदि पर नया, किन्तु आगम-संगत चिन्तन प्रदान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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