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________________ जिनवाणी-विशेषाङ्क जीवनबुद्धि होना मिथ्यात्व है। भोगों के बिना जीवन नहीं चलेगा एवं भोगों के लिए ही जीवन मिला है, इस प्रकार की मान्यता मिथ्यात्व है। इस मान्यता के कारण ही मनुष्य अधिकाधिक भोग-साधन जुटाने में लगा हुआ है। मिथ्यात्व के आगम में पांच, दस एवं पच्चीस प्रकारों का निरूपण है, किन्तु आधुनिक भाषा में जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का कथन किया जाये तो अग्राङ्कित बिन्दु भी मिथ्यात्व को ही व्यक्त करते हैं- १. भोग में रुचि होना एवं योग-समाधि में अरुचि होना २. भोगों में ही जीवनबुद्धि स्वीकार करना ३. भय एवं प्रलोभन से धर्माचरण करना ४. भोगों की प्राप्ति के लिए धर्म-क्रियाएं करना ५. आर्थिक उन्नति को ही सब कुछ समझकर शरीर, मन एवं आत्मिक स्वास्थ्य की उपेक्षा करना ६. धर्म से अधिक महत्त्व धन को देना आदि। मिथ्यात्वी व्यक्ति सांसारिक सुखों की पूर्ति हेतु धर्म-क्रिया का अवलम्बन लेता है। वह धार्मिक प्रवृत्तियों को सांसारिक सुखों की पूर्ति का माध्यम समझता है। मिथ्यात्वी का आचरण बाह्य रूप से तप-त्याग का होते हुए भी आन्तरिक रूप से संसार की अभिलाषा से ही जुड़ा रहता है। विभिन्न देवी-देवताओं को पूजना, उनसे लौकिक कामनाओं की पूर्ति हेतु याचना करना भी मिथ्यात्व का ही एक रूप है जो आज जैनों में भी प्रचलित है, किन्तु यह तो मिथ्यात्व का स्थूल रूप है, इसके मूल में तो मिथ्यात्व का सूक्ष्म, किन्तु भयंकर रूप छिपा हुआ है और वह है आत्मेतर, पदार्थों की प्राप्ति में सुख मानना। आत्मेतर पदार्थ हैं-आत्मा से भिन्न पदार्थ, यथा- शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, भवन, वाहन आदि । इन पर- पदार्थों में सुख मानना मिथ्यात्व है। मनुष्य इन पर-पदार्थों से सुख प्राप्त करने की मान्यता का इतना आदी है कि उसे यह भी ज्ञात नहीं कि सुख का स्रोत बाहर नहीं भीतर है। सुख की तलाश बाहर करना एवं उसे अन्य पदार्थों में मानना मिथ्यात्व ही है। भगवान् महावीर ने सुख-दुःख का कर्ता स्वयं आत्मा को माना है इसलिए अन्य से सख द:ख चाहना उनकी दष्टि में मिथ्यात्व है। __ जिसको सम्यग्दृष्टि प्राप्त नहीं है, किन्तु सम्यग्दृष्टि प्राप्त करना चाहता है, उसके लिए प्राथमिक उपाय यही है कि वह जिनेन्द्रों के द्वारा प्ररूपित तत्त्व को निश्शंकतापूर्वक स्वीकार कर ले। जिन्होंने सम्यग्दर्शन के माध्यम से सम्यक् पथ को अपनाया है तथा समस्त राग-द्वेषादि शत्रुओं को जीतकर केवलज्ञान केवलदर्शन की प्राप्ति की है उनके वचनों पर विश्वास करना आवश्यक है। यह विश्वास या यह श्रद्धा भी सम्यग्दर्शन ही है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर भी व्यक्ति उन्मार्ग से सन्मार्ग पर आ जाता है। सम्यग्दर्शन कैसा एवं कितने काल के लिए हुआ है, इसका भी बड़ा महत्व है। यदि सम्यग्दर्शन क्षायिक हुआ है तो वह एक बार होने के पश्चात् कभी समाप्त नहीं होता। ऐसे सम्यग्दर्शन को प्राप्त मनुष्य ने यदि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से पूर्व अगले भव का आयुष्य नहीं बांधा है तो वह उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यदि आयुष्य बांध लिया है तो तीन या चार भवों में अवश्य ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है। यदि सम्यग्दर्शन औपशमिक हुआ है तो वह एक बार अवश्य ही समाप्त होता है। क्योंकि औपशमिक सम्यक्त्व का काल जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। ऐसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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