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जिनवाणी-विशेषाङ्क
अप्रेल-जून, १९९६ किया है जो तत्त्वजिज्ञासुओं के लिए पठनीय है।
द्वितीय-खण्ड ‘सम्यग्दर्शन : जीवन व्यवहार' में प्रकाशित लेख पूज्य विद्वत्संतों तथा ज्ञान-विज्ञान के विविध क्षेत्रों के ज्ञाता प्रज्ञाशील विचारकों के हैं। सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति होने से जीवन-दृष्टि किस प्रकार बदल जाती है, जीवन कितना निश्चित, निर्भय, शान्त एवं सुखी हो जाता है, इसका विवेचन तो इस खण्ड के लेखों में हआ ही है, किन्तु इसके अतिरिक्त अर्थव्यवस्था, समाज-व्यवस्था, स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण, जैसे विषयों के परिप्रेक्ष्य में भी सम्यग्दर्शन पर विचार किया गया है। सम्यक्त्वी पाप करता है या नहीं, यदि नहीं करता है तो कैसा पाप नहीं करता है आदि बिन्दुओं पर विचार करने के साथ बढ़ते भोग-साधनों के परिप्रेक्ष्य में भी दृष्टि की सम्यक्ता का चिन्तन किया गया है।
तृतीय-खण्ड में उन विविध लेखों का संकलन है, जिनका समावेश प्रथम दो खण्डों में नहीं हो सका है। इस खण्ड में यहूदी, ईसाई, इस्लाम एवं पारसी धर्मों में श्रद्धा के महत्त्व का विचार किया गया है। बौद्ध दर्शन में वर्णित सम्यग्दर्शन से जैनदर्शन के सम्यग्दर्शन का तुलनात्मक विवेचन करने के अतिरिक्त वेदान्त एवं अन्य भारतीय दर्शनों से भी जैनदर्शन के सम्यग्दर्शन की तुलना की गई है। गीता का सम्यग्दर्शन जैसे शोधपरक लेख एवं 'संशय, युवित्त एवं विश्वास' जैसे दार्शनिक लेखों का भी इस खण्ड में समावेश है। बीसवीं शती के अध्यात्म पुरुष स्वामी शरणानन्दजी का दृष्टिविषयक विचार, महात्मा गांधी की दृष्टि में जागृत मनुष्य एवं श्रीमद् राजचन्द्र का सम्यग्दृष्टिविषयक चिन्तन भी इस खण्ड में समाहित हैं।
प्रस्तुत विशेषाङ्क को तैयार करने में जिन लेखकों का सहयोग रहा है उनका मैं व्यक्तिगत रूप से एवं जिनवाणी परिवार की ओर से हार्दिक आभारी हूँ। उन विद्वान् लेखकों का भी मैं कृतज्ञ हूँ जिनके लेखों का समावेश विशेषाङ्क के कलेवर की अधिकता के कारण इस विशेषाङ्क में नहीं हो सका है। लेख-संकलन में गुरुजी श्री कन्हैयालाल जी लोढ़ा, जयपुर का सहयोग रहा है, अतः मैं उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ। तत्त्वजिज्ञासु विचक्षण स्वाध्याय-प्रवृत्ति के धनी श्री प्रमोदमुनि जी म.सा. एवं श्रीयुत सम्पतराज जी डोसी, जोधपुर से कुछ लेखों में आई शंकाओं का सहज सैद्धान्तिक समाधान मिला है, अतः मैं आप दोनों का भी हार्दिक कृतज्ञ हूँ। सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल के अध्यक्ष श्री सम्पतसिंह जी भाण्डावत एवं मन्त्री श्री विमल चन्द जी डागा का भी पूर्ण सकारात्मक सहयोग रहा है, अतः मैं आप महानुभावों का भी आभार मानता हूँ।
इस विशेषाङ्क को पढ़कर हमने यदि अपनी दृष्टि में यत्किञ्चित् भी निर्मलता लाने में सफलता प्राप्त की तो इसका प्रकाशन सार्थक माना जायेगा। संसार में व्यक्तिगत समस्या हो या पारिवारिक समस्या हो, सामाजिक समस्या हो या राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्या हो, सभी दृष्टिगत भेद के कारण उत्पन्न होती हैं एवं बढती हैं। यदि दृष्टि में निर्मलता किं वा सम्यक्त्व आ जाये तो समस्त समस्याएं निःसत्त्व या बलहीन हो जाती हैं। इस दृष्टि से 'सम्यग्दर्शन' पर प्रस्तुत यह विशेषाङ्क पूर्णत: साम्प्रतिक या प्रासङ्गिक है।
-सहायक आचार्य, संस्कृत-विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर
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