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________________ १००....................... जिनवाणी-विशेपाङ्क 'दर्शन' शब्द के स्थान पर 'दृष्टि' शब्द का प्रयोग अधिक मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र और उत्तराध्ययनसूत्र में 'दर्शन' शब्द का अर्थ 'तत्त्वश्रद्धा' है। परवर्ती जैन साहित्य में दर्शन शब्द देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन अपने में तत्त्व-साक्षात्कार, आत्म-साक्षात्कार, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अर्थों को समेटे हुए है। इन पर थोड़ी गहराई से विचार करना अपेक्षित है। सम्यक्-दर्शन के विभिन्न अर्थों का विकास सम्यक्-दर्शन शब्द के विभिन्न अर्थों पर विचार करने से पहले हमें यह देखना होगा कि इनमें से कौन-सा अर्थ ऐतिहासिक दृष्टि से प्रथम था और उसके पश्चात् किन-किन ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण यही शब्द अपने दूसरे अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। प्रथमतः हम देखते हैं कि बुद्ध और महावीर के समय में प्रत्येक धर्म-प्रवर्तक अपने सिद्धान्त को सम्यक्-दृष्टि और दूसरे के सिद्धान्त को मिथ्यादृष्टि कहता था। बौद्धागमों में ६२ मिथ्यादृष्टियों एवं जैनागम सूत्रकृतांग में ३६३ मिथ्यादृष्टियों का उल्लेख मिलता है। लेकिन वहां पर मिथ्यादृष्टि शब्द अश्रद्धा अथवा मिथ्या श्रद्धा के अर्थ में नहीं, वरन् गलत दृष्टिकोण के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। बाद में जब यह प्रश्न उठा कि गलत दृष्टिकोण को किस सन्दर्भ में माना जाय, तो कहा गया कि जीव (आत्मतत्त्व) और जगत् के सम्बन्ध में जो गलत दृष्टिकोण है, वही मिथ्यादर्शन या मिथ्यादृष्टि है। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि से तात्पर्य हुआ आत्मा और जगत् के विषय में गलत दृष्टिकोण । उस युग में प्रत्येक धर्म प्रवर्तक आत्मा और जगत् के स्वरूप के विषय में अपने दृष्टिकोण को सम्यक्दृष्टि अथवा सम्यग्दर्शन तथा विरोधी के दृष्टिकोण को मिथ्यादृष्टि अथवा मिथ्यादर्शन कहता था। बाद में प्रत्येक सम्प्रदाय जीव और जगत् सम्बन्धी अपने दृष्टिकोण पर विश्वास करने को सम्यम्दृष्टि कहने लगा और जो लोग विपरीत मान्यता रखते थे उनको मिथ्यादृष्टि कहने लगा। इस प्रकार सम्यक्दर्शन शब्द तत्त्वार्थ (जीव और जगत् के स्वरूप के) श्रद्धान के अर्थ में रूढ़ हुआ। लेकिन तत्त्वार्थश्रद्धान के अर्थ में भी सम्यक्-दर्शन शब्द अपने मूल अर्थ से अधिक दूर नहीं हुआ था, यद्यपि उसकी भावनागत दिशा बदल चुकी थी। उसमें श्रद्धा का तत्त्व प्रविष्ट हो गया था, लेकिन वह श्रद्धा थी तत्त्व स्वरूप के प्रति । वैयक्तिक श्रद्धा का विकास बाद की बात थी। __श्रमण-परम्परा में लम्बे समय तक सम्यग्दर्शन का दृष्टिकोण अर्थ ही ग्राह्य रहा था जो बाद में तत्त्वार्थश्रद्धान के रूप में विकसित हुआ। यहां तक तो श्रद्धा में बौद्धिक पक्ष निहित था, श्रद्धा ज्ञानात्मक थी। लेकिन जैसे-जैसे भागवत सम्प्रदाय का विकास हुआ, उसका प्रभाव जैन और बौद्ध श्रमण-परम्पराओं पर भी पड़ा। तत्त्वार्थ की श्रद्धा बुद्ध और जिन पर केन्द्रित होने लगी और वह ज्ञानात्मक से भावात्मक और निर्वैयक्तिक से वैयक्तिक बन गयी। इसने जैन और बौद्ध परम्पराओं में भक्ति के तत्त्व का वपन किया। आगम एवं पिटक ग्रन्थों के संकलन एवं लिपिबद्ध होने तक यह सब कुछ हो चुका था। अतः आगम और पिटक ग्रन्थों में सम्यक् दर्शन के ये सभी अर्थ उपलब्ध होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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